Book Title: Rajasthan ke Jain Shastra Bhandaronki Granth Soochi Part 5
Author(s): Kasturchand Kasliwal, Anupchand
Publisher: Prabandh Karini Committee Jaipur
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[ ग्रन्थ सूची-पंचम भाग
गिरिपुर बास्तश्य हुंबडजातीय का साइया भार्या सहिगलदै तयोः मुत सम्यक्वपानीय प्रक्षालित पापकदम अङ्गीकृत द्वादशयनियम । दानदत्ति संतपत विविधपात्र विहित श्री शत्रु जयेताजीयेत तुगी प्रमुख तीय पात्र समस्त गुणगरपादेयः को जाय तदभार्या शीतेवगील संपन्ना दानपूजापरायणालावण्य जलपर्वता वचनामृतवापिका श्राविका गोरा चाम्नी द्वितीय भार्या महरषदेतयों पुत्र को सामलदास एते: ज्ञानाबरणी कर्म क्षयार्थ ७० कर्णसागराय थी मल्लिनाथ चाय लिखाप्यप्रदत्त ।
३७३२. प्रतिसं० ५। पत्रसं०७६ । लेकाल १९२२ पापा, सुदी २ 1 पूर्ण । चेष्टन सं. २२२। प्राप्ति स्थान--दि जैन मन्दिर पंचायती भरतपुर ।
विशेष-भरतपुर में पन्नालाल बजारमा ने लिखवाई थी।
३७३३. मल्लिनाथ चरित्र-- सकलभूषण । पत्र सं० ४१ । प्रा० ११३४५३ इञ्च । भाषासंस्कृत । विषय-चरित्र । २० का X । ले. काल सं० १८०८ फाल्गुन बुदी ५ । पूर्ण । वेष्टन सं० १३३ । प्राप्ति स्थान दि० जन मन्दिर अभिनन्दन स्वामी (दी)।
३७३४. मल्लिनाथ चरित्र भाषा–सेवाराम पाटनी। पत्रसं० ५६ | प्रा० ११४७३ इश्च । भाषा-हिन्दी विषय-चरित्र । र० काल सं० १५५० भादवा बुदी ५। लेकाल १८८४ । पूर्ण । वेष्टन सं० १०। प्राप्ति स्थान-दि. जैन मन्दिर दीवानजी कामा ।
विशेष- कामा में सदासुख रिषभदास ने प्रतिलिपि की थी। प्रारम्भ
(नमः) श्री मल्लिनाथाय, कर्ममल्लविनाशने । अनन्त महिमासाय, जगत्स्वामनिनिशं ।।
पद्य
मल्लिनाथ जिनको सदा यो मनबचकाय । मङ्गलकारी जगत में, भव्य जीवन सूखदाय ॥ मङ्गलमय मङ्गलकरण, मल्लिनाय जिनराज ।
ग्रारभ्यो मैं पथ यह, मिद्धि करो महाराजि ॥२॥ हिन्दी गद्य का नमूना
समरत कार्य करि जगत गुरु नै ले करि इन्द्र बड़ी विभूति सूपूर्ववत पुर ने ले आवता हुआ। तहां राज प्रांगण के विर्ष बडा सिंहासन पाइ हर्ष करि सर्वाङ्ग भूषित इन्द्र बस्तो हुई। अन्तिम प्रशस्ति
रामसुख परभातीमल्ल, जोधराज मगहि बुधिमल्ल । दीपचन्द गोधो गुणवान इनि चारया मिलि कही बखानि ॥१।। मामनाथ चरित्र की भाषा, करो महा इह अति विख्यात । पढे सूमै साधरमी लोग, उपज पूण्य पाप क्षय होय ॥२।। तब हमने यह कियो विचार, बचनरूप भाषा अतिसार । कीजे रचना सुगम अमार, सब जन पढे सुनै सुखकार ॥३१॥ मायाचन्द को नंदन जागि, गोतपाटणी सुखकी खानि । सेवाराम नाम है सही, भाषा कवि को जानौ इहि ॥४॥