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थे। संवत् १७४६ में चांदखेड़ी में भारी प्रतिष्ठा हुई थी उसका वर्णन एक पट्टावली में दिया हुग्रा है जिससे पता चलता है कि समाज के एक वर्ग के विरोध के उपरांत भी ऐसे समारोहों में इन्हें ही विशेष अतिथि बनाकर आमन्त्रित किया जाता था। जोबनेर ( संवत् १५५१ ) बांसखो । संवत् १७८३) मारोठ (सं० १७६४ ) बून्दी (सं० १७८१ ) समाई माधोपुर ( सं० १८२६) अजमेर ( सं १८५२, जयपुर ( सं० १८६१ एवं १.६७ ) प्रादि स्थानों में जो सांस्कृतिक प्रतिष्ठा प्रायोजन सम्पन्न हुए थे उन सबमें इन सन्तों का विशेष हाथ था।
प्रस्तुत पुस्तक के सम्बन्ध में जैन सन्तों पर एक पुस्तक लेवार करने का पर्याप्त समय से विचार चान रहा था क्योंकि जब काभी गन्त साहित्य पर प्रकाशित होने वाली पुस्तक देखने में आतो और उस में जैन सन्तों के बारे में कोई भी उल्लेख नहीं देन कर हिन्दी विद्वानों के इनके साहित्य की उपेक्षा से दुःख भी होता किन्तु साथ में यह भी मोवना कि जब तक उनको कोई सामग्री ही उपलब्ध नहीं होती तब तक यह उपेक्षा इसी प्रकार चलती रहेगी । इसलिए सर्व प्रथम राजस्थान के जैन सन्तों के जीवन एवं उनकी साहित्य सेवा पर लिखने का निश्चय किया गया। किन्तु प्राचीनकाल से ही होने वाले इन सन्नों का एक हो पुस्तक में परिचय दिया जाना सम्भव नहीं था इसलिए संवत् १४५० से १७५० तक का समय ही अधिक उपयुक्त समझा गया क्योंकि यही समय इन सन्तों ( भट्टारकों ) का स्वर्ण काल रहा था इन ३०० वर्षों में जो प्रभावना, त्याग एवं साहित्य सेवा की धुन इन सन्तों की रही वह सबको प्रापनान्वित करने वाली है।
पुस्तक में ५४ जैन सन्तों के जीवन, व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर प्रकाश डाला है। इनमें कुछ सन्तों का तो पाठकों को संभवतः प्रथम बार परिचय प्राप्त होगा। इन सन्सों ने अपने जीवन विकास के साथ साथ जन जागृति के लिए किस किस प्रकार के साहित्य का निर्माण किया वह सब पुस्तक में प्रयुक्त सामग्री से भली प्रकार जाना जा सकता है। वास्तव में ये सच्चे अर्थों में सन्त थे। अपने स्वयं के जीवन को पवित्र करने के पश्चात् उन्होंने जगत को उसी मार्ग पर चलने का उपदेश दिया था । वे सच्चे अर्थ में साहित्य एवं धर्म प्रचारक थे। उन्होंने मतिः काव्यों की ही रचना नहीं की किन्तु भक्ति के अतिरिक्त अध्यात्म, सदाचररए एन महापुरुषों के जीवन के श्रापार पर भी कृतियों लिखने और उनके पठन पाठन का प्रचार किया। वे कमी एक स्थान पर जम कर नहीं रहे किन्तु देश के विभिन्न ग्राम नगरों में विहार करके जन जाति का शवनाद फूका । पुस्तक के अन्त में कुछ लघु रचनायें एव कुछ रचनात्रों के प्रमुख स्थलों को अविकल रूप से दिया गया है। जिससे विज्ञान एवं पादक इन रचनाओं का सहज नाक से आनन्द ले सके।