Book Title: Rajasthan ke Jain Sant Vyaktitva evam Krititva
Author(s): Kasturchand Kasliwal
Publisher: Gendilal Shah Jaipur

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Page 17
________________ से नष्ट नहीं होते तो पता नहीं माज कितनी अधिक संख्या में इन भंडारों में प्रय उपलब्ध होते । फिर भी जो कुछ अवशिष्ट है ये ही इन सन्तों की साहित्यिक निष्ठा को प्रदर्शित करने के लिये पर्याप्त हैं । ___ प्रस्तुत पुस्तक में राजस्थान की भूमि को सम्बत् १४५० से १७५० तक पाबन करने वाले सन्तों का परिचय दिया गया है । लेकिन इस प्रदेश में तो प्राचीनतम काल से ही सन्त होते रहे हैं जिन्होंने अपनी सेवाओं द्वारा इस प्रदेश की जनता को जाग्रत किया है । डा. ज्योतिप्रसाद जी' के अनुसार "दिगम्बराम्नाय सम्मत षट् खंडगमादि मूल प्रागमों की सर्व प्रसिद्ध एवं सर्वाधिक महत्वपूर्ण धवल, जयधवल, महाघवल नाम की विशाल टीकाओं के रचयिता प्रातः स्मरणीय स्वामी वीरसेन को जन्म देने का सौभाग्य भी राजस्थान की भूमि को ही प्राप्त है। ये प्राचार्य प्रवर श्री वीरसेन भट्टारक की सम्मानित पदवी के धारक थे। इन्द्रमन्दि वृत्त व तावतार से पता चलता है कि आगम सिद्धान्त के तस्वज श्री एलाचार्य चित्रकूट (चित्तौड़ ) में विराजते थे और उन्ही के चरणों के सानिध्य इन्होंने सिद्धान्तादि का अध्ययन किया था। जम्बूद्वीपपण्पत्ति के रचयिता आ. पद्मनन्दि राजस्थानी सन्त थे। प्रजाप्ति में २३९८ प्राकृप्त माथाओं में तीन लोकों का वर्णन किया गया है। प्राप्ति की रचना बांरा (कोटा) नगर में हुई थी। इसका रचनाकाल संवत् ८०५ है। उन दिनों मेनाष्ट्र पर राजा शक्ति या सत्ति का शासन था और द्वारा नगर मेवाड़ के अधीन था। नयकार ने अपने आपको वीरनन्दि का प्रशिष्य एवं बलनन्दि के शिष्य लिखा है । १० वीं शताब्दी में होने वाले हरिभद्र मूरि राजस्थान के दूसरे सन्न थे जो प्राकृत एवं संस्कृत भाषा के जबरदस्त विद्वान् थे। इनका सम्बन्ध चित्तौड़ से था । आगम नथों पर इनका पूर्ण अधिकार था। इन्होंने अनुयोगद्वार मूत्र, आवश्यक सूत्र, दशवकालिक सूत्र, नन्दीसूत्र, प्रज्ञापना सुत्र आदि आगम ग्रथों पर संस्कृत में विस्तृत टोकाएं लिथी और उनके स्वाध्याय में वृद्धि की। न्याय शास्त्र के ये प्रकाण्ड विद्वान् थे इसीलिये उन्होंने अनेकान्त जयपताका, अनकान्तवादप्रवेश जैसे दार्शनिक प्रयों की रचना की। समराइच्चकहा प्राकृत मापा की सुन्दर बाथाकृति है जो इन्हीं के द्वारा गध पद्य दोनों में लिखी हुई है। इसमें ९ प्रकरण हैं जिनमें परस्पर विरोधी दो पुरुषों के साथ साथ चलने वाले ६ जन्मान्तरों का वर्णन किया गया है । इराका प्राकृतिक यर्णन एवं भाषा चित्रण दोनों हो सुन्दर है । भूख्यिान भी इनफी अच्छी रचना है। हरि मद्र के 'योग बिन्दु' एवं 'योगदृष्टि' समुच्क्य मी दर्शन शास्त्र की मच्छी रचनायें मानी जाती है । १. देखिये वीरवाणी का राजस्थान जैन साहित्य सेवी विशेषांक पृष् सं०६ .

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