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उदारता और कृतज्ञता
थानेदार ने जाकर उनकी चारों राइफलें जप्त करलीं । सेठजी ने सोचाव्यासजी अपने ही हैं, जब जयपुर जावेंगे, तब उनसे हथियारों की वापिसी का आर्डर ले आयेंगे । कुछ समय पश्चात् सेठजी जोधपुर गये और अपने सुसराल में जाकर ठहरे। वहां से उन्होंने व्यासजी को फोन किया । जबाव में पूछा गया कि 'कौन' ? तो इन्होंने कहा – मूथा छगनमल | फिर पूछा गया कि 'कौन छगनमल' ? तो उत्तर दिया कि बलूदे का छगनमल गूथा । फिर भी व्यासजी बोले- मैंने अभी तक आपको पहिचाना नहीं ? तब ये मन में विचारने लगे-अरे, वर्षो तक खिलाया पिलाया और परिवार का पालन-पोषण किया । फिर भी कहते है कि मैंने पहिचाना नहीं । तब इन्होंने जोर से कहा- मैं हूं दा के सेठ शम्भूमल गंगाराम फर्म का मालिक छगनमल मूथा । तव व्यासजी बोले- सेठ छगनमलजी आप हैं । इन्होंने कहा- हां, मैं ही हूं | एक आवश्यक कार्य से मैं आपसे मिलना चाहता हूं । व्यासजी ने कहा --- माफ कीजिए, मुझे अभी मिलने की फुर्सत नहीं है । सेठजी यह उत्तर सुनकर अवाक् रह गये । बरे, कुर्सी पर बैठते तो देर नही हुई, और यह उत्तर सुनने को मिला । सारी कृतज्ञता काफूर हो गई। सेठजी के मन में आया कि हथियारों को गोली मारे और उनको वापिस कराने का झंझट छोड़े । इतने में ही बलदेवदासजी आगये सेठजी से मिलने के लिए। और आते ही पूछा- -आप यहां कब आये ? तब छगनमलजी ने कहा- दो दिन से आया हुआ हूं । उन्होने पूछा- अभी आप फोन पर किससे बातें कर रहे थे ? इन्होंने कहा - राइफलों के लायसेन्स के लिये व्यासजी से बात करना चाहता था । पर उन्होंने समय ही नहीं दिया । तव वलदेवदासजी बोले- इस जरा से काम के लिए उन्हें क्यों कहते हैं ? आपका यह काम हो जायगा । वे थानेदार के पास गये और राइफले वापिस उनके घर भिजवा दीं । देखो - जिनसे कुछ विशेष परिचय भी नहीं था, उन्होंने तो झट काम करा दिया । किन्तु जिन व्यासजी से इतना घनिष्ट सम्बन्ध था, उनसे सुनने को मिला कि 'पहिचाना नहीं, आप कौन है ? भाई, पहिचाना क्यों नहीं ? क्योंकि कुर्सी पर बैठते ही मनुष्य के दिमाग पर हुकूमत का भूत सवार हो जाता है और अभिमान का नशा चढ़ जाता है । यह सब समय की वलिहारी है ।
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दिल को छोटा न करो
स्वच्छ नहीं होते तो
और दोनो ही एक करते थे । श्रीपाल का ख्याल था कि मेरे
भाइयो, यदि श्रीपाल ओर मैनासुन्दरी के हृदय उनके विचार पवित्र नहीं रहते । परन्तु वे उदारचेता थे, दूसरे को सुखी बनाने की कामना
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