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प्रवचन-सुधा जीमने के लिए बैठा दिया। जब परोसगारी हो गई और उन्होंने जीमना प्रारम्भ किया, तभी राजा ने शिकारी कुत्ते लाकर छुड़वा दिये । जैसे ही कुत्ते भोजन खाने को झपटे, वैसे ही ६६ भाई तो उनके डर से भोजन छोड़कर भाग गये। किन्तु श्रेणिक कुमार भोजन पर जमे रहे। उन्होंने दूसरे भाइयों की थालियों को अपने समीप खीच लिया और उनमें का भोजन कुत्तों को फेंकते हुए स्वयं अपनी थाली का भोजन खाते रहे। यह देखकर राजा ने निश्चय कर लिया कि यह श्रेणिक कुमार ही राज्य करने के योग्य है । भाई, पहिले राजा लोग इस प्रकार से परीक्षा करके ही राज्य के उत्तराधिकारी का निर्णय करते थे और उत्तीर्ण होनेवाले को राज्य-पाट संभलवाते थे। यदि हमें भी समाज में मान-सम्मान प्राप्त करना है और ऊंचा पद पाने की इच्छा है तो उसके योग्य त्याग करना चाहिए और उत्तम गुणों को धारण करना चाहिए। जो विना गुणों के ही पद पाना चाहते है, ऐसे पद के भूखों को पदवी नही मिलती है। जो समाज और धर्म का कार्य करते हैं, उनका मूल्यांकन समाज करती है और उन्हें उच्च पदों पर बासीन करती है ।
आप लोगों ने कल के समाचार-पत्र में पढ़ा है कि राष्ट्रपति ने तीन व्यक्तियों को बुलाकर उन्हें 'प्राणि-मित्र' की पदवी से विभूषित किया है। उनमें से एक तो आपके ही शहर के प्रतिष्ठित व्यक्ति सेठ मानन्दराज जी सुराना हैं, जिन्हें यह पदवी प्राप्त हुई है। ये बूचड़खानों से जीवों को बनाने के लिए तन, मन और धन से लगे हुए हैं। नये खुलने वाले कसाई खानों को नहीं खोलने के लिए सरकार के विरुद्ध आन्दोलन का संचालन करने में संलग्न हैं। तभी उन्हें यह पदवी मिली ! लोग धर्म और समाज की सेवा तो कुछ करना नहीं चाहें और पदवी लेना चाहें तो कैसे मिल सकती है ? हम देखते हैं कि आज हमारे लोगों में से कितने ही व्यक्तियों में ऐसी आदतें पड़ी हुई हैं कि बाहिर से आनेवाले नये व्यक्ति के जूते और चप्पलें ही पहिनकर चले जाते हैं। कोई भाई थैला नीचे रखकर आता है और थोड़ी देर में वापिस जाकर देखता है, तो थैला ही गायब पाता हैं । तो क्या यहां थानक में मीणे, भील, वोभी, भंगी या चमार आते हैं ? अब आप बतायें कि जिन लोगों की नीयत ऐसी खराब है, वे क्या उच्च पदवी पाने के योग्य हैं ? ऐसे लोग यदि यहां आकर सामायिक पोपध करलें और भक्त वनकर बैठ जायें तो क्या उनको 'धर्मात्मा कह सकते हैं ? और क्या उनको महाजन और ओसवाल कह सकते हैं ? कभी नहीं कह सकते । शास्त्रकार कहते हैं कि----
अन्यस्याने कृतं पापं धर्मस्थाने विनश्यति । धर्मस्थाने कृतं पापं वनलेपो भविष्यति ।।