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प्रवचन-सुधा वर्षा हो जाने से चारो ओर हरियाली हो रही है और केचुला गिजाई, आदि अनेक प्रकार के त्रस जीव उत्पन्न हो रहे हैं, ऐसे समय मे सघ को कैसे रवाना दिया जावे । जब वर्षा रक जायगी और मार्ग भी उचित हो जायगा, तव आगे चलेंगे । यह सुनकर सघ के कुछ लोगो ने कहा-शाहजी, बाप कोरे बुद्ध हैं । अने, धर्म के लिए जो हिंसा होती है, वह हिंसा नही है।
यह सुनकर लोकाशाह ने कहा—भाइयो जैनधर्म या वैष्णवधर्म कोई भी ऐसा नहीं कह सकता कि धर्म के लिए जीवघात करने पर हिंसा नही है। जहर तो हसते हुए खावे तो भी मरेगा और रोते हुए खावे तो भी मरेगा । हिंसा तो हर हालत मे दु खदायी ही है। यह कहकर लोकाशाह सघ से वापिस लौट गये और अहमदाबाद में जाकर कुछ विचारक पुरुपो को एकनित करके गोष्ठी की। उस समय पैतालीस प्रमुख व्यक्तियो ने कहा-धर्म के विषय में अनेक मूढताएं और भ्रम पूर्ण धारणाएं प्रचलित हो रही हैं, इनका निराकरण किये बिना धर्म का उत्थान होना सभव नहीं है। उन लोगो ने लोकाशाह से कहा-शाहजी | केवल शास्न मुनाने से काम नहीं चलेगा। घर से बाहिर निकलो
और लोगो को बतलाओ कि साधुपना इस प्रकार पाला जाता है और साधु की निया और चर्या इस प्रकार की होती है। तभी दुनिया पर असर पड़ेगा और तोग धर्म का यथार्य मार्ग जान सकेंगे। आप आगे हो जाये और हम सब आपके पीछे चलते हैं। उनकी बात सुनकर लोकाशाह ने कहा-भाइयो, मैं आप लोगो के प्रस्ताव से सहमत , आपके विचार सुन्दर और उत्तम हैं। परन्तु में अभी प्रचार करना नही चाहता है, क्योकि श्रावक-द्वारा प्रचार मे सावध और निरवद्य सभी प्रकार के काम सभव हैं। मुनि वने विना निरवद्य प्रचार नहीं हो सकता । तब उन लोगो ने पूछा- हम किसके शिष्य वने ? लोकाशाह ने कहा--भाई, भगवान का शासन पचम काल के अन्त तक चलेगा। अभी तो केवल दो हजार वर्ष ही व्यतीत हुए हैं। आप लोग योग्य गुरु की खोज कीजिए।
जिन दिनो ज्ञानजी स्वामी अहमदाबाद में विचर रह थे। उस समय वे लोग अहमदाबाद आये और लोकाशाह के मिवाय उन पैतालीम ही लोगो ने वि० स० १५२६ की वैशाख शुक्ला तीज-अक्षय तृतीया के दिन दीक्षा ले ली और दीक्षा लेकर अपने उपकारी का नाम अमर रखने के लिए उन्होने लोकागच्छ की स्थापना की। इसके पश्चात स० १५३६ मे चत सुदी सप्तमी के दिन लोकागाह ने दीक्षा लो। अव यहा दो मत हैं। कितने ही इतिहासलखया का मत है कि उन्होने दीक्षा नहीं ली, वे जीवन भर थावक धर्म ही