Book Title: Pravachan Sudha
Author(s): Mishrimalmuni
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur

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Page 390
________________ धर्मवीर लोकाशाह ३७७ पालन करते रहे। और कुछ का मत है कि दीक्षा ली। किन्तु मेरे पास इस बात के प्रमाण है कि उन्होने दीक्षा ली और अनेकों को दीक्षा दी। तत्पश्चात् वे दिल्ली गये और वहां चर्चा की और विजय प्राप्त करके पीछे वापिस आये। दिल्ली से लौटने पर उन्होंने साधु-समाज में फैल रहे भ्रष्टाचार की खुले रूप में खरी समालोचना करना प्रारम्भ कर दिया। इससे उनके अनेक प्रवल विरोधी उत्पन्न हो गये। वि० स० १५४६ मे तेला की पारणा के समय विरोधियों ने उष्ण-जल के साथ अलवर में विप दे दिया। उन्होने सोचा कि नेता के विना यह नया पथ समाप्त हो जायगा। पर आप लोग देखते हैं कि दयानन्द सरस्वती को जहर देकर मारदिया गया तो क्या आर्य समाज समाप्त हो गया ? एक सरस्वती मर गया तो अनेक सरस्वती-पुत्र उत्पन्न हो गये । कोई ममझे कि व्यक्ति को मार देने से उसका पंथ ही समाप्त हो जायगा, तो यह नहीं हो सकता। एक मारा जाता है तो आज करोड़ो की संख्या में उनके अनुयायी सारे संसार मे फैले हुए है। जैसे यूरोप में ईसा मसीह ने अपने धर्म की वेदी पर प्राण दिये है। उसी प्रकार भारत मे लोकाशाहने सत्य धर्म के प्रचार करने में अपने प्राण दिये है। उस समय आज कल के समाचार पत्र आदि प्रचार के कोई भी साधन नहीं थे, किन्तु फिर भी सहस्रो व्यक्ति लोकागच्छ के अनुयायी बने और आज तो आठ लाख के लगभग उनके मत्त के अनुयायी हैं। लोकाशाह का विचार किसी नये मत को निकालने का नहीं था। उनकी तो भावना यही थी कि धर्म के ऊपर जो धूल आकर पड़ गई है, मैं उसे साफ कर दूं। परन्तु उनके अनुयायियों ने उनके नाम से यह नाम चलाया है । यह कोई नया सम्प्रदाय नही है किन्तु आगमानुमोदित जैनधर्म का यथार्थ स्वरूपमात्र है। लोकाशाह की परम्परा लोकाशाह के बाद आठ पाट बरावर चले । फिर कुछ कमजोरी आगई तो श्रीमान लवजी, धर्मसिंह जी, धर्मदास जी, और जीवराज जी जैसे सन्त पैदा हुए। उन्होने मुनि वनकर धर्म का प्रचार किया। आज सारे भारतवर्ष में इन चारो सन्तो का ही परिवार फैला हुआ है। धर्मसिंह जी का दरिया पुरी सम्प्रदाय है। लबजीऋपि का खंभात और ऋपि सम्प्रदाय है। पजाव में अमरसिंह जी महाराज का सम्प्रदाय है और कोटा में जीवराज जी के अनुयायी साधुओ का सम्प्रदाय चला। जिसमे हुक्मीचन्द्र जी महाराज के पूज्य जवाहिरलाल जी, मन्नालाल जी, पूज्य शीतलदास जी, नानकराम जी, और तेजमिह जी हुए। योर जो बाईम सम्प्रदाय कहलाती है वे हैं--धर्मदाम जी

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