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धनतेरस का धर्मोपदेश
संसार की असारता और अनित्यता का वर्णन कर साधु बनने की इच्छा प्रकट की। उन्होने कहा
असासयं दळु इमं विहारं, बहु अंतरायं न य दोहमाउं ।
तम्हा गिहंसि न रइ लहामी, आमंतयामो चरिस्सामु मोणं । हमने देख लिया कि यह मनुष्य जीवन अनित्य है, उसमे भी विघ्न बहुत हैं और मायु अल्प है इसलिए हमे घर मे कोई आनन्द नहीं है। हम मुनि बनने के लिए आपकी अनुमति चाहते है ।
पुत्रों की यह बात सुनकर पिता ने बहुत कुछ समझाया और कहा-~ अहिज्ज वेए परिविस्सविप्पे, पुत्ते पडिटप्प गिहंसि जाया । भोच्चाण भोए सह इत्थियाहि, मारण्णगा होह मुणी पसत्था ।।
हे पुत्रो, पहिले वेदो को पढ़ो, ब्रह्मणों को भोजन कराओ, स्त्रियों के साथ भोग करो, पुत्रो को उत्पन्न करो। उनका विवाह कर और उन पर घर का भार सौंपकर फिर अरण्यवासी उत्तम मुनि बन जाना ।
इस प्रकार उनको समझाने और वैदिक धर्मानुसार गृहस्थ बनकर घर में रहने के लिए बहुत कुछ कहा। पर उन दोनों पुत्रों ने अपने अकाट्य उत्तरों से माता-पिता को निरुत्तर कर दिया और उनको संबोधित करते हुए कहा---
जा जा चच्चइ रयणी, न सा पडिनियत्तई।
धम्मं च कुणमाणस्स, सफला जंति राइयो । अर्थात् जो जो रात वीत रही है, वह लौटकर नही आती है। अत: धर्म की आराधना करनी चाहिए। क्योकि धर्म करनेवाले की ही रात्रियां सफल होती हैं।
अन्त में पुत्रों के उपदेश से प्रभावित होकर भृगुपुरोहित ने अपनी स्त्री को समझाया और दोनों पुत्रों के साथ उनके माता-पिता ने भी दीक्षा ले ली। उनकी सम्पत्ति का कोई उत्तराधिकारी नही था, अत. जब इपुकार राजा उनके धन को अपने खजाने में भिजवा रहा था, तब उसकी रानी ने कहा
वन्तासी पुरिसो रायं, न सो होइ पसंसियो।
माहणेण परिच्चत्तं धणं आदाउमिच्छसि ॥ हे राजन्, वमन की हुई वस्तु को खाने वाला पुरुप प्रशंसा को नही पाता । तुम ब्राह्मण के द्वारा छोड़े गये इस धन को लेने की इच्छा करते हो ?
रानी के द्वारा इस प्रकार संबोधित किये जाने पर राजा का मन भी संसार से विरक्त हो गया और वह भी अपनी रानी के साथ ही गुरु के पास