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विचारों की दृढ़ता
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भाव ही सब कुछ इस शंका-समाधान से आप लोगों को समझ में आ गया होगा कि जैनधर्म में सभी कुछ भला-बुरा काम मनुष्यों के भावों पर ही है। यदि मनुष्य अपने भावों पर, शुद्ध विचारों पर दृढ़ है, तो वह अवश्य ही अपने लक्ष्यभूत मोक्ष को प्राप्त कर लेगा। यही नहीं, अपितु जो मनुष्य लौकिक कार्यों के साधन करने वाले विचारों पर भी दृढ़ रहता है, वह भी अपना लौकिक कार्य सहज में ही सम्पन्न कर लेता है। यदि मनुष्य अपनी विचार-धारा से इधर-उधर हो जाय, तो फिर उसका वह कार्य पार पड़ना कठिन होता है । देखो-आपने एक पौधा कहीं लगाया। अव यदि आप उसे प्रतिदिन वहां से उखाड़ करके इधर-उधर लगाते रहें, तो वह कभी वृक्ष नहीं बन सकेगा। अंडा है, उसमें पंचेन्द्रिय जीव है, यदि उसे भी आप इधर-उधर उठाकर रखते रहेंगे, या हिलाते-डुलाते रहेंगे, तो वह भी गल जायगा और उसमें का जीव मर जायगा। इसलिए मनुष्य को अपनी उत्तम विचार-धारा मे सदा एकरूप से दृढ़ रहना चाहिए। भले ही वह विचार-धारा व्रतरूप हो, या अव्रत रूप हो, सम्यक्त्वरूप हो, अथवा मिथ्यात्व रूप हो, धर्मरूप हो, अथवा अधर्मरूप हो। किन्तु यदि उसकी धारा एक रूप है और वह उसमें एक रस होकर बह रहा है तो ऐसे व्यक्ति की अन्नत रूप, अधर्मरूप या मिथ्यात्व रूप विचारधारा को सहज में ही व्रतरूप, धर्मरूप या सम्यक्त्व रूप में वदला जा सकता है, उसकी उस धारा को मोड़ देने में न अधिक समय लगता है और न विशेप कठिनाई ही होती है । परन्तु जिस व्यक्ति की विचार-धारा क्षीण है, जिसके विचार कभी इधर और कभी उधर बदलते रहते हैं, उसको बदलना या उत्तम दिशा की ओर मोड़ देना संभव नहीं है। इसलिए मनुष्य को सबसे पहिले अपने विचारों को दृढ़ बना लेना चाहिए।
सिद्धान्त का अर्थ-दृढ़ता विचार कहो, चाहे सिद्धान्त कहो और चाहे लक्ष्य कहों एक ही बात है। हमारे----आपके विचार सदा बदलते रहते है, इसलिए इन्हें सिद्धान्त नही कहा जा सकता है । जिनके विचार सदा स्थिर हैं, अटल हैं और लक्ष्य को प्राप्त करने के है, उन्हें ही सिद्धान्त शब्द से कहा जाता है । जिन विचारों का लक्ष्य अन्त मे सिद्ध पद अर्थात् मुक्ति या शिव पद को प्राप्त करने का है, उन विचारो का नाम ही सिद्धान्त है । शब्द की व्याख्या करते हुए कहा गया है कि
सिद्धः सिद्धिपदप्राप्तिरूपः अन्त : धर्मो यस्यासौ सिद्धान्तः । इस निरुक्ति के अनुसार यह अर्थ फलित होता है कि अपने अभीष्ट शिवपद प्राप्ति के लक्ष्य भूत विचारों को सिद्धान्त कहते हैं। मनुष्य को सदा ही