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धर्मकथा का ध्येय
३४३ कैसी बुद्धि हो गई भ्रष्ट जरा नहीं शर्म भी खाते हो। इतनी रात बिताइ कहाँ पर कारन क्यों न सुनाते हो ॥टेर।। राज्य गुरु कहलाते पंडित अकल अधाते हो। दुनियां क्या चर्चा करती वो सुन न पाते हो ॥ इ० १॥ अरे, आप पंडित कहलाते हो और इतनी रात बीतने पर घर आते हो ? आपको शर्म नहीं आती ! आपकी पढ़ाई को धिक्कार है । इस प्रकार से उसके मन में जो कुछ आया, वह उसने कह डाला । पुरोहितजी ने उसके आक्रोशमय वचनों को शान्तिपूर्वक सुना और मन में सोचने लगे---- जब मैं इतनी देर से धर आता हूं, तव इसके मन मे सन्देह उठना स्वाभाविक है। अतः मुझे इसका सन्देह निवारण करना चाहिए। यह विचार कर उन्होंने बड़े मीठे स्वर में शान्तिपूर्वक कहा
चिन्ता मत कर हे प्रिो, नहीं और कोई बात । हे सौभाग्यशालिनि, तू इतनी आग-बबूला क्यों होती है ? तू जिस बात की शंका कर रही है, उसका लेश मात्र भी मेरे साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। अरी, भरी जवानी में नहीं था, तो अब इस ढलती अवस्था में क्या होगा? देर से घर आने का कारण यह है कि मुझे समय बीतने का कुछ पता नहीं चल पाता है । वह ज्ञान भंडार है, उसके समान विचारक विद्वान् अन्यत्र ढूंढने पर भी नहीं मिलेगा। मैं तेरे सामने उसकी क्या प्रशंसा करूँ ? तू और किसी भी प्रकार का वहम अपने मन में मत कर । जैसे भंगेड़ी को भग पिये विना, अफीमची को अफीम खायै विना और संगीतज्ञ को संगीत सुने विना चैन नहीं पड़ती वैसे ही ज्ञानी को ज्ञानी की सगति किये विना भी चैन नहीं पड़ती है। इसलिए तु अपने मन में किसी भी प्रकार का सन्देह मत कर। सुदर्शन सेठ जैसा धनी है, वैसा ही ज्ञानी भी है, मिण्टभापी भी है और कामदेव के समान सुन्दर रूपवान् भी है । उसके समीप बैठ कर चर्चा करने पर उठने का मन ही नही होता है। इस प्रकार सुदर्शन सेठ की प्रशंसा करता हुआ पुरोहित सो गया।
कपिला पुरोहितानी ने पति के मुख से जो इस प्रकार से सुदर्शन सेठ की प्रशंसा सुनी तो इसे रात्रिभर नींद नहीं आई और वह करवट बलदती हुई सोचती रही कि किस प्रकार सुदर्शन के साथ संगम किया जाय ?
भाइयो, देखो-वर्षा का जल तो एक ही प्रकार का मधुर होता है, और यह सर्वत्र समान रूप से बरसता है । किन्तु बगीचे मे नाना प्रकार के वृक्षों की