Book Title: Pravachan Sudha
Author(s): Mishrimalmuni
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur

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Page 361
________________ ३४८ प्रवचन-सुधा ___महारानोजी, मैं मूर्ख ही सही । परन्तु आप तो बुद्धि-वैभव वाली है और बहुत कुशल हैं । पर मैं तब आपको कुशल समझू जब आप उसके साथ भोगो को भोग लेवें । इस प्रकार कपिला ने रानी पर रग चढा दिया। अब रानी मन ही मन मुदर्शन को अपने जाल में फ्माने की मोचने लगी। उद्यान से राजमहल में वापिस आने पर रानी ने अपना अभिप्राय अपनी अति चतर दासी से कहा । उमन रानी को वहत समझाया पर उसकी समझ मे कुछ नहीं आया । कहा भी है विषयासक्तचित्ताना, गुण को वा न नश्यति । न वैदुष्य न मानुष्य, नाभिजात्य न सत्यवाक् ।। अर्थात् ---जिनका मन विपयो मे --काम-भोगो मे मासक्त हो जाता है, उनका कौन सा गुण नष्ट नहीं हो जाता है। न उनमे विद्वत्ता रहती है, न मानवता रहती है, न कुलीनता रहती है और न सत्य वचन ही रहते हैं । ____ दासी ने फिर भी कहा-महारानी जी, आप इतने बड़े राज्य की स्वामिनी होकर एक साधारण पुरुष की याचना करती है ? यह बात आपके योग्य नहीं है। उसकी बात सुनकर रानी बोली--बस, तू अधिक मत बोल । यदि सुदर्शन सेठ के साथ मेरा समागम नही होगा तो मैं जीवित नहीं रह सकू गी। भाइयो, हमारे महपियो ने ठीक ही कहा है पाक त्याग विवेक च, वैभवं मानितामपि । कामार्ता खलु मुञ्चन्ति किमन्यः स्व च जीवितम् ।। जो मनुष्य काम से पीडित होते हैं, वे पवित्रता, त्याग, विवेक, वैभव, और मान-सम्मान को भी छोड़ देते हैं। और अधिक क्या कहे, वे अपने जीवन को भी छोड़ दते है अर्थात् मरण को भी प्राप्त हो जाते हैं। दासी ने फिर भी समझाया- महारानी जी, यदि कही भेद खुल गया, तो भारी बदनामी होगी और आपकी प्रतिष्ठा धूल मे मिल जायगी। अत आप इस प्रकार का दुर्विचार छोड देवें। मगर रानी के हृदय पर कुछ भी असर नहीं हुआ । आचार्य कहते हैं कि---- पराराधनजान्यात्पैशुन्यात्परिवादतः पराभवात् किमन्येभ्यो न विभेति हि कामुक ॥ कामी पुरुप टूमरो की खुशामद करने से, दूसरे के आगे दीनता दिखाने से, पैशुन्य से, निन्दा से और क्या कहे अपने अपमान से भी नहीं डरते है !

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