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धर्मकथा का ध्येय
पक्षियों को तो देख ? जिन बेचारों के पास तो कोई साधन भी नहीं और इन्हें कोई सहायता देनेवाला भी नहीं है । फिर भी ये सदा चहकते हुए सदा मस्त रहते हैं। ये दिन को भी आनन्द-किलोल करते रहते हैं और रात को भी निश्चिन्त होकर सोते हैं । जब ये पशु-पक्षी तक भी चिन्ता नहीं करते हैं और निश्चिन्त होकर जीवन-यापन करते हैं, तब तू क्यों चिन्ता की ज्वाला में सदा जलता रहता है । यह चिन्ता की ज्वाला तो चिता से भी भयंकर है। जैसा कि कहा है----
चिन्ता-चिता द्वयोर्मध्ये चिन्ता एव गरीयसी ।
चिता दहति निर्जीवं चिन्ता दहति सजीविकम् ॥ चिन्ता और चिता इन दोनों में चिन्ता रूपी अग्नि ही बहुत भयंकर है, क्योंकि चिताकी अग्नि तो निर्जीव शरीर को (मुर्दे को) जलाती है, किन्तु चिन्ता रूपी अग्नि तो सजीव शरीर को अर्थात् जीवित मनुष्य को जलाती है।
चिन्तन करो, चिता नहीं अतः ज्ञानी मनुष्य को विचार करना चाहिए कि मैं क्यों चिन्ता करूं? यदि चिन्ता करूंगा तो मेरे मस्तिष्क की जो उर्वराशक्ति है-प्रतिभा है-वह नष्ट हो जायगी । अतः मुझे चिन्ता को छोड़ कर वस्तु-स्वरूप का चिन्तक वनना चाहिए। इसलिए हे भाईयो, आप लोग चिन्ता को छोड़कर चिन्तक (विचारक) बनें और सोचें कि यह आपदा मुझ पर क्यों माई ? इसकी जड़ क्या है ? मूल कारण क्या है ? इस प्रकार विचार कर और चिन्ता के मूल कारण की खोज करेसी और चिन्तक बनेंगे तो अवश्य उसे पकड़ सकगे और जब पकड़ लेंगे तो उसे दूर भी सहज में ही कर सकेंगे। अन्यथा चिन्ता की अग्नि में ही जलते रहेंगे । भाई, चिन्तक पुरुप ही इस भव की आपदाओं से छूट सकता है और भविष्य का, पर भव का भी सुन्दर निर्माण कर सकता है और उसे सुखदायक बना सकता है। __मनुष्य चिन्तनशील प्राणी है और इसी कारण उसे चिन्ता उत्पन्न होती है, पर उससे चिन्तित रह कर अपने आपको भस्म करना उचित नहीं है, किन्तु चिन्ता को अपने भीतर घर मत करने दो। वह जैसे ही आवे, उसे उसके कारणों का विचार करके दूर करो। पर यह कव संभव है ? जब कि उसके भीतर ज्ञान की पूंजी हो और ध्यान की विचारने की प्रवृत्ति हो । चिन्ता के लिए तो कुछ नहीं चाहिए, परन्तु चिन्तक के लिए तो सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शन रूपी पूजी की आवश्यकता है। यदि इन दोनों को साथ लेकर चलोगे तो सम्यक्चारित्र तो स्वयमेव आ जायगा। इस पकार जब आप ठोक दिशा मे २२