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प्रवचन-सुधा
के व्यापारादि करते है। इन कल-कारखानो मे कितनी महा हिंसा होती है, इसका क्या कभी आप लोगो ने विचार किया है ?
हा, तो जव आचार्य धर्मघोष ने देखा कि चौमासा शुर हो गया है और सेठ भी अपने साथियो के साथ ठहर गया है तब हमे भी यही आस-पास किसी निरवद्य और निराकुल स्थान पर ठहर जाना चाहिए। यह विचार कर उन्होने भी अपने सर्वसघ परिवार को पर्वतो की गुफाओ आदि एकान्त स्थानो मे ठहरने के लिए आज्ञा दे दी और कहा- साधुओ, यदि एपणीय आहार-जल मिल जावे तो ग्रहण कर लेना, अन्यथा जैमी तपस्या सभव हो, वैसा कर लेना । तव मव साधुओ ने कहा--- गुरुदेव, इस जगल मे निर्दोष गोचरी मिलना सभव नही है, अत आप तो हमे चार चार मास क्षमण की तपस्या दिलावें । आचार्य ने सबको चातुर्मासिक तपस्या का प्रत्यायन कराके स्वय भी उसे अगीकार किया और वे किसी निर्जन बत-प्रदेया मे जर विराजे । शेष साधु भी यथायोग्य स्थानो पर ठहर करके आत्म-साधना मे सलग्न हो गये ।
इधर सेठ भी अपने सार्थवाहो के साथ सामायिक-स्वाध्याय मादि करते हुए चौमासे के दिन पूरे करने लगा। उसन देखा कि साधु-मन्त लोग अपनेअपने ठिकाने चले गये हैं और धर्मध्यान में मस्त हैं तो वह भी अपने कार्य में और साथियो की सार-सभाल मे व्यस्त होकर उन साधु-सन्तो की बात ही मानो भूल-सा गया । इस प्रकार चार मास बीत गये । तव धन्नावह सेठ ने अपने साथियो को प्रस्थान करने के लिए तैयार होने की सूचना दी । जब सेठ के प्रधान मुनीम ने आकर कहा-सेठ साहब, और तो सब ने चलने की तैयारी कर ली है। परन्तु अपने साथ जो ५०० मुनिराज आये थे, उनका तो कोई पता ही नहीं है, तब सेठ को पश्चात्ताप हुआ--हाय, मैं बडा पापी हूँ । जो मुनिमहात्माओ को विश्वास देकर साथ मे लाया, परन्तु पूरे चौमासे भर मैंन उनकी कोई सार-सभाल नही की। तब सब लोगो को भेजकर सेठ न उनकी खोजवीन करायी । इधर चौमासा पूर्ण हआ जानकर सव साधु लोग भी आचार्य के पास एकत्रित हुए। जैसे ही सेठ को साधुओ के एकत्रित होने ये समाचार मिले, वैसे ही वह आचार्य देव के पास गया और उनके चरण-कमलो मे पडकर रोने लगा । श्राचार्य महाराज ने पूछा सेठजी, क्या बात है ? सेठ बोला - महाराज, मेंने आपके साथ विश्वासघात या महापाप किया है जो कि में आप सवको विश्वास दिलाकर साथ मे लाया और फिर चौमासे भर मेने आप लोगों की कोई सार-सभात नहीं की। तव आचार्य ने कहा - सेठजी, इसमे आपका कोई अपराध नहीं है। हमारा तो चार मास तक खद धर्म-माधन हुआ और