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प्रधा अप्सराए नृत्य कर रही है और मयं प्रशार मोगामी माया ग है। इतना सुनने पर गी आप गे कि भा--में जारमा आनन्द from से हम जीवित नहीं नीट समते है।
मुनर र चुनों ? भाइयो, आप तोगी ने इमी प्रसार स्था-मोक्ष नरम नु योनि में जाने के मभी मार्गो गो मुना। और विचार नीरिया जिगार मार्ग पर नहीं जाना है विन्तु सुप क मार्ग पर बना है। जिनानी मनुष्य "न सब बातो को सुनपार भी रहता है कि भाज धर्म इन्ने मे माग पेट नर्ग भरेगा और दुनियादारी का काम नहीं चलेगा । अपने को तो नत्र पुरी जाती लक्ष्मी मिले तो काम चले। यह मुनपर गन्त गुरुपाने मागे, ग मार्ग पर चलने मे वह भी मिन जायगी। परन्तु तुम्हारी जामा पानी हो जायगी, पाप का मारी भार उठाना पडेगा और फिर समार-मागर में पार होना कठिन हो जायगा। तब विचारतान् व्यक्ति विद्यान्ता है frहन मगार के क्षणिक सुखो के पाने के लिए अपनी लात्मा को पानी नहीं करता और न पाप के भार को ढोना है । वह जानता है कि यह मानुर पर्याय बढी कटिना: से मिली है। यदि इसे हमने इन काम-भोगो में आसक्त होोर यो ही गया दिया तो फिर आग अनन्तकाल में भी इसे पाना कठिन है। अत मुझे तो आत्म-माधना मे ही आगे बढते रहना चाहिए। सामारिका लक्ष्मी तो पुण्यवानी के साथ आगे स्वयमेव प्राप्त होती जायगी। उमवे पाने के लिए मुझे अपनी आत्मा को पाप के महापंक में नही डुबोना है। जिस पुरुप ने आत्म-कल्याण की वात सुन ली है, वह पापमार्ग या भकल्याणकारी वस्तु की ओर आनषित नही होता है। किन्तु जिसने आत्म कल्याण की बात सुनी ही नहीं है, वह तो उस ओर आकर्षित हुए बिना नहीं रहेगा।
आप लोग यहा उपदेश सुनने को आये है और में सुनाने के लिए बैठा हुआ है। भाई, यह भगवद्-वाणी तो निर्मल जल की धारा है। जो इसमे अबकी लगायगा, वह अपत्ते सासारिक सन्तापो को दूर कर आत्मिक अनन्त शान्ति को प्राप्त करेगा। इस भगवद्-वाणी को सुनते हुए हमें एक ही ध्यान रखना चाहिए कि हे प्रभो, मैं तेरा हू और तू मेरा है । परन्तु आप तो जगत्प्रभु बन गये और मैं तेरा भक्त होकर के भी अब तक दास ही बना हुआ है। तेरे सम कक्ष होने में मेरे भीतर क्या कमी रह गई ? जो कमी मेरे मन-वचनकाया मे रह गई हो, वह वता, मैं उसे दूर करूगा । यदि इस प्रकार के विचार