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प्रवचन-सुधा हटायेगा और आत्मस्वरूप की ओर उन्मुख नहीं होगा, उसमें तन्मय नहीं होगा, तब तक भात्म-सिद्धि सभव नहीं है।
भाइयो, आप लोग जो उस समय व्याख्यान में बैठे है, सामायिक में बैठे हैं तो इसमें भी लक्ष्य आत्मस्वरूप की प्राप्ति का ही है। इनसे आत्मा को नित्य नयी खुराक मिलती रहती है। हमें प्रत्येक कार्य करते हुए यह मन्थन करते रहना चाहिए कि यह आत्मा के लिए कहा तक उपयोगी है ? यदि उपयोगी प्रतीत हो तो करना चाहिए, अन्यथा छोड देना चाहिए। हम चाहे जैन हों, या वैष्णव, मुसलमान हों या ईसाई, पारसी हों या सिक्ख ? किसी भी जाति या सम्प्रदाय के क्यों न हों, किन्तु यदि हमने अपनी आत्मा को जान लिया, तो ऊपर के जो ये सब मत और सम्प्रदायों के खोखे और जाम है, उन्हें उतार कर फेंकने ही पड़ेंगे । आप लोगों की दुकानो मे बाहिर से खोखों में माल आता है, आप लोग उन्हें खोलकर माल को दुकान के भीतर रख लेते हैं और खाली खोखों को बाहिर रख देते हैं। खोखे का उपयोग माल को सुरक्षित पहुंचाने भर का होता है। इसी प्रकार शरीर से सम्बन्ध रखने वाले ये जाति और सम्प्रदाय भी खोखे से ही समझना चाहिए। इनके भीतर जो आत्माराम रूपी उत्तम माल है, उसे जब हमने जान लिया अर्थात् अपने भीतर जमा कर लिया तो फिर खोखों के मोह से क्या प्रयोजन है ? वस, ज्ञानी जीव शरीर और मत, पन्य या सम्प्रदाय को खोने के समान समझता है। वह मात्मा को अपनी स्वतन्त्र वस्तु मानता है और शरीर आदि को पर एवं पर तन्त्र वस्तु मानता है। यही कारण है कि पर-बस्तुओं के प्रति ज्ञानी-पूरुप की मनोवृत्ति उदासीन, अनासक्त या निरपेक्ष हो जाती है और अपनी आत्म-निधि के प्रति उसकी वृत्ति सदा जागरूक रहती है ।
प्रमाद को छोड़िए अभी आपके सामने छोटे मुनि जी ने पांच प्रकार के प्रमादों का वर्णन किया। ये विकथा, कपाय, निद्रा, मद और विपयरूप प्रमाद आत्मा को अपने स्वरूप से दूर करते हैं, अतः ये आत्मा के लिए हानिकारक हैं । यथार्थ में ये सभी प्रमाद वेकार या निकम्मे पुरुषों के कार्य है। जो व्यक्ति वेकार या निकम्मा होता है, वह इधर-उधर बैठकर नाना प्रकार की विकथाएं करता रहता है। जिसके ऊपर कार्य का भार होता है, वह व्यक्ति कभी भी कहींबैठकर विकया नहीं करेगा और न वेकार की गप्पं ही हांकेगा । यदि कोई आकर के सुनाने का प्रयत्न भी करेगा तो वह यही कहेगा कि भाई साहब, अभी मुझे सुनने का अवकाश नहीं है। इसी प्रकार निकम्मा व्यक्ति ही भंग