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धर्मादा की संपत्ति
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वे धर्मस्थान से पर-बस्तु का चुराना तो दूर की बात है, किन्तु अपने ही द्वारा निकाले हुए सुकृत के द्रव्य को भी अपने काम में लेना नीति-विरुद्ध समझते ये और पाप मानते थे।
हा, तो मैं कह रहा था कि उन सेठजी ने उस लादी पर लिख दिया कि यह सुकृत की शिला है और इसका उपयोग सुकृत के काम मे ही किया जाय ! क्योकि वे नीतिवान् थे । सेठानी ने उसे सभालकर के कमरे में रख दी। और सेठजी दुकान पर चले गए। वह सुकृत की रकम जितने एक-दो घन्टे तक उस तिजोरी से वाहिर रही, उतने समय के व्याज को मिलाकर बीस हजार रुपये वापिस सुकृत की तिजोरी में रख दिए ? भाई, सुकृत की रकम में अपना और द्रव्य तो मिलाना, पर न उसमे से लेना ही चाहिए और न उसे अपने काग में उपयोग करना चाहिए ।
सेठजी के जीमकर दुकान चले जाने पर स्त्रियो के जीमने का नम्बर आया । तव मेठानीजी अपनी वहमओ को साथ में लेकर भोजन करने को वैठी। पहिले यही रीति थी। यह घर मे सम्प और एकता बनाये रखने का एक मार्ग था। परन्तु आज तो न सासु बहुओ को साथ लेकर जीमने बैठती है और न बहुएँ उनकी मर्यादा रखती है। सब अपनी-अपनी गरज रखती हैं। यही कारण है कि धरो मे फूट बढ रही है और प्रेम घट रहा है ।
हा, तो सेठानीजी अपनी बहओ के साथ जव जीम रही थी, तभी कमरे के भीतर से किसी के छम-छम नाचने की आवाज आई। सेठानी ने बड़ो बहू से कहा--अरी, कमरा खोलकर तो देख, भीतर कौन नाच रहा है ? ज्यो ही उसने कमरे का द्वार खोल कर देखा तो उस शिलाको नाचते हुए पाया और उससे हीरे, पन्न, मोती और माणिक को झरते हुए देखा। उसने यह बात आकर सेठानीजी से कही कि कमरे में तो चमत्कार हो रहा है। सेठानी भी विस्मित होकर उठी और चमत्कार देखकर दग रह गई। कमरा बन्दकर वापिस जीमने लगी । जय खा-पीकर और चौका-पानी से निवृत्त हुई तो सेठानीजी ने झरोखे मे झाककर उस कमरे को पुन देखा तो वहा हीरे-पन्न का ढेर हो गया था। उन्होने नीव र भेजकर सेठजी को कहलाया कि दुवान से घर तुरन्त पधारे । नौकर की बात सुनकर सेठजी सोचने लगे - क्या बात है, जो कि मुझे असमय मे बुलाया ? मुनीम लोग वधा सोचेंगे कि सेठजी अभी आये थे और वापिस फिर चले गये । भाई, पहिले के लोग इस बात का पूरा ध्यान रखते थे और काम-काज के सिवाय घर पर नहीं जाते थे । तभा उनका शारोवार ठीक चलता था और घर की इज्जत भी रहती थी।