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सफलता का मूलमंत्र : आस्था
२६३ गुरु पर आस्था रखनी चाहिए और यही भावना करनी चाहिए कि मैं जितनी भी गुरु की भक्ति करूंगा, सेवा करूँगा और इनके अनुशासन में रहूंगा तो मेरे आत्मा का उत्तरोत्तर विकास ही होगा।
आप लोगों को ज्ञात होना चाहिए कि स्थानाङ्ग सूत्र में बतलाया गया हैं कि गुरु के उपकार से शिष्य, सेठ के उपकार से सेवक और माता-पिता के उपकार से पुत्र कभी अऋण नहीं हो सकता है। जब गौतम स्वामी ने प्रश्न किया-~-भगवन ! क्या ऊऋण होने का कोई उपाय भी है ? तब भगवान ने कहा----उऋण तो नहीं हो सकता, परन्तु हलका अवश्य हो सकता है ? गौतम स्वामी ने पुनः पूछा--भगवन ! किस प्रकार हलका हो सकता है ? तब भगवान् ने कहा---गौतम, जिस पुत्र के माता-पिता मिथ्यात्व के गर्त में पड़े हों, वह उसमें से निकाल कर यदि सम्यक्त्व में स्थापित करें, उन्हें सम्यक्त्व की प्राप्ति करावे, तो वह उनके ऋण से हलका हो सकता है ! गुरु का शिष्य पर अनन्त उपकार हैं। परन्तु कदाचित् कर्मोदय से गुरु अपने पद से चलविचल हो जायें, क्योंकि जब तक मोह कर्म का उदय है और छद्मस्थ अवस्था है, तब तक भूल का होना संभव है. तव उनको प्रतिबोध देकर जिस प्रकार से भी संभव हो, वापिस सुमार्ग पर प्रत्यवस्थापन करने से शिष्य गुरु के ऋण से हलका हो सकता है।
सुयोग्य श्रावक एक महात्मा जी बड़े ज्ञानी, ध्यानी और चरित्रवान् थे । परन्तु वे एकल बिहारी थे। वे विचरते हुए एक नगर में पहुंचे । इनके प्रवचन सुनकर जनता मुग्ध हो गई, अतः लोग उनकी सेवा-सुश्रूषा करने लगे । एक दिन जब महात्मा जी पारणा के लिए जा रहे थे, तब एक बहुमुल्य हीरा पड़ा हुआ दिखायी दिया। उसे देखकर उनके विचार उत्पन्न हुमा कि आज तो मैं शरीर से स्वस्थ
और जवान हूं 1 पर पीछे शरीर के शिथिल और अस्वस्थ होने पर बिना धन के मेरी कोन सेवा करेगा ? यह विचार आते ही उन्होंने उसे उठाकर उसे अंटी में रख लिया। जव गोचरी से निवृत्त हुए तो सोचा कि इसे कहां रखा जावे ? तब उन्होंने उसे एक कपड़े की धज्जी में बांधकर बैठने के पाटे में एक गड्ढा था, उसमें रख दिया। सायंकाल के समय प्रतिक्रमण करने के लिए एक श्रावक प्रतिदिन आते थे और वे महात्मा जी के समीप ही बैठते थे, सो आज भी जब प्रतिक्रमण का समय हा तो महात्मा जी प्रतिक्रमण बोलने लगे और वह श्रावक भी बैंठकर प्रतिक्रमण सुनने लगा।