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प्रवचन-सुधा
हां, तो सेठजी घर गए और सेठानी जी से बोले—आज असमय में कैसे वुलाया? उसने कहा—यह क्या कौतुक आया है ? चलकर के देखो कि सारा कमरा रत्नों से भर गया है। उन्होंने जो जाकर देखा तो वे भी बड़े विस्मित हुए और उस कमरे को बन्द करके ताला लगाकर चावी अपने साथ ले गये। सेठजी ने सोचा कि ऐसी चमत्कारी सुकृत की वस्तु को अपने घर में रखना ठीक नहीं है । यदि कभी किसी घर के व्यक्ति का मन चल जाय तो सारा घर बर्वाद हो जायगा । यह सोचकर शहर के वाहिर जो उनका वगीचा था उसमें एक वंगला बनवाया । उसके नीचे तलघर बनवाया और उसमें बीस-बीस हाय लम्बे चौड़े कमरे बनवाये । जव वंगला बनकर तैयार हो गया, तब सेठजी ने वह लादी घर से उठाई और कपड़े में लपेट कर बगीचे में ले जाकर तलघर के एक कमरे में जाकर रख दी। वह शिला वहां भी नाच कर रत्न विखेरने लगी। जब वह भर गया तो सेठजी ने उसे दूसरे में रख दी और इसे सीलमोहर लगाकर बन्दकर दिया । इस प्रकार दूसरे के भर जाने पर तीसरे में और तीसरे के भर-जाने पर चौथे में रख दी । और सब को सील-मोहर बन्द कर दिया और कमरो के वाहिर लिख दिया कि यह सम्पत्ति देश, जाति और धर्म में लगाई जावे और मेरे परिवार का कोई व्यक्ति इसे काम में नहीं लेवे ।' यहां यह ज्ञातव्य है कि घर पर जो सुकृत का द्रव्य था और घर पर उस शिला के प्रभाव से जितना धन कमरे में भर गया था, वह भी उन्होंने बगीचे का मकान बनते ही उसके तलघर में डलवा दिया था ।
भाइयो, उन सेठजी का नाम था सारंगशाह । वे जब तक जीवित रहे, उनका घर और परिवार भर-पूर रहे और उनका कारोबार खूब चलता रहा। परन्तु जैसे चक्रवर्ती के काल कर जाने पर उनका अपार वैभव भी उनके हजारों लड़के नही सम्भाल पाते है और वह सब समाप्त हो जाता है, क्योंकि वह सब चक्रवर्ती के पुण्य से प्राप्त होता है, अत: उनको जाते ही वह वैभव भी चला जाता है । यही हाल सेठ सारंगशाह का हुआ। उनके स्वर्गवास होते ही कुछ दिनों में एक एक करके सब लड़के स्वर्गीय हो गए और कारोवार भी ठडा रह गया। उनकी रकम लोग खा गये और इधर तो घर में गरीवी आई और उधर परिवार में एक पोता, एक वह और सेठानीजी ये तीन व्यक्ति हो बचे । भाई, जब दिन बुरे आते हैं, तो, सब ओर से विपत्तियां आती हैं । आचार्यों ने कहा है कि -
विपदो हि वीतपुण्यानां तिष्ठन्त्येव हि पृष्ठतः।