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विज्ञान की चुनौती
२२७ पश्चात् दुःपमा नाम का पांचवा आरा प्रारम्भ होता है । इसमें उत्तरोत्तर दु.ख बढ़ता जाता है । शरीर की ऊँचाई उत्तरोत्तर घटते-घटते अन्त में एक हाथ प्रमाण रह जाती है । आयु भी एक सौ पच्चीस वर्य से घटते-घटते वीस वर्ष की रह जाती है । इस काल का द्वार बन्द हो जाता है । तत्पश्चात् दुःपम-दुःपमा नाम का छठा आरा प्रारम्भ होता है। इसमें आयु काय आदि उत्तरोत्तर घटते जाते हैं और दुःख की मात्रा उत्तरोत्तर बढ़ती जाती है । इस काल का प्रमाण भी इक्कीस हजार वर्प है । इस काल के अन्त में प्रलय पड़ता है । उस समय सर्व प्रथम सात दिन तक अति भयंकर पवन चलती है जिससे वृक्ष, पर्वत आदि गिर पड़ते है । तत्पश्चात् सात-सात दिन तक कम से शीतल खारे पानी की वर्षा, विषमयी जलकी वर्षा धूम, धलि, बज्र और अग्नि की वर्षा होती है। यह प्रलयकाल ४७ दिन तक रहता है। इस में कुछ इने-गिने वे ही मनुष्य और पशु पक्षी वच पाते हैं जो कि गंगा-सिन्धु नदी की और विजयार्घ पर्वत की गुफाओं में चले जाते हैं । इस प्रलय में भरत क्षेत्र की एक योजन मोटी भूमि जल कर नष्ट हो जाती है इस प्रकार अवसर्पिणी काल का अन्त होकर उत्सपिणी काल का प्रारम्भ होता है।
उत्सर्पिणीकाल के भी क्रमश: ये छह आरे होते हैं-१ दुपम-दुपमा, २ दुपमा, ३ दुपम-सुषमा, ४ सुपमा दुगमा, ५ सुपमा और ६ सुपमा-सुपमा । इन आरों में क्रमश: आयु, वल, काय, सुख आदि की वृद्धि होने लगती है । इन सभी आरों का प्रमाण अवसपिणीकाल के इन्हीं नामोंवाले आरे के समान जानना चाहिए । विशेष बात यह है कि उत्सपिणीकाल से तीसरे बारे में चौवीस तीर्थकर आदि ६३ शालाकापुरुप उत्पन्न होते हैं और इसी आरे में उत्पन्न हुए जीव मोक्ष एवं चारों गतियों में जाते हैं। इस प्रकार यह काल चक्र निरन्तर परिवत्तित होता रहता है ।
काल और समय भाइयो, जव 'तेणं फालेणं' कहा जाये तब विवक्षित उत्सर्पिणी या अवसर्पिणी काल को लेना चाहिए और 'तेणं समाएणं' से उसके तीसरे या चौथे आरे को ग्रहण करना चाहिए । आज कल अवसर्पिणीकाल का यह पंचम आरा चल रहा है। इसमें आयु, काय, धन, धान्य, दुपद, चतुष्पद वर्ण, गन्ध रस और स्पर्ण ये दश वस्तुएँ उत्तरोतर घट रही हैं । आयु और काय (शरीर) के घटने की बात तो ऊपर बतला ही आए हैं। धन-धान्य के घटने की बात प्रत्यक्ष ही दिख रही है। एक समय था जब हीरा-पन्ना और अन्य रत्न मकानो