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प्रवचन सुधा अरे पापिनी, तू यह क्या कर रही है ? तू तो धर्म को लजा रही है ? तब उसने कहासुनो मुनिवर जी, मत देखो पर-दोष, विचारी बोलो,
अहो गुणीजनजी। बाहिरपन को भूलं, आंख निज खोलो ...... ." उस साध्वी ने कहा-महाराज, आप पराये दूषण क्या देखते हो, जरा अपने भीतर मी देखो, वहां क्या चल रहा है और क्या करने को जा रहे हो ? यह सुनते ही आपाढाचार्य चौके और चुपचाप आगे को चल दिये । अव देवता ने विचारा कि शासन-की सेवा के भाव तो अभी इनमें शेप हैं। अव देखं कि दया भी इनके अन्दर है, अथवा नही? यह सोच उसने अपना रूप बदला और जिधर आचार्य जा रहे थे, उसी ओर जंगल में आगे जाकर एक तम्बू बनाया, उसमे गाना-बजाना प्रारम्भ किया। जब आचार्य समीप माते दिखे तो उस देवता ने माया मयी छह बालको के रूप बनाये जो रत्ल-सुर्वणमयी आभूपण पहिने हुए थे और उनको तम्बू से बाहिर निकाला। आचार्य को सामने
आते ही उन मवने 'तिक्खुत्तो आयाहिण पयाहिण मत्थए। वंदामि' कहा। फिर पूछा-स्वामी, आपके सुख-साता है ? जैसे ही आचार्य ने उन बालकों की ओर देखा तो उनके रत्न-जड़े आभूपण देखकर उनका मन बिगड़ गया । उन्होने सोचा--मैं घर-द्वार मांडने जा रहा हूं, परन्तु पास में तो एक फूटी कौडी भी नहीं है और कोड़ी के विना गृहस्थ भी कौड़ी का नहीं है। विना टका-पैमा पास हुए बिना मुझे कौन पूछेगा ? अच्छा मौका हाथ लगा है, यहां तो वीरान जंगल है, मेरे कार्य को देखने वाला कौन है ? क्यो न इन वालको को मार करके इनके माभूपण ले लू, जिससे गृहस्थी का निर्वाह जीवन-भर आनन्द से होगा? बस, फिर क्या था, उन्होने एक-एक करके छहों वालकों के गले मसोस दिये और आभपण उतार कर अपने पात्र मे भर लिये।
भाइयो, देखो-कहां तो वे छह काया की प्रतिपालना करते थे और कहा छह लडनो के प्राण ले लिए। महापुरुषों ने ठीक ही कहा है...-'लोभ पाप का चाप बखाना' । लोभ के पीछे मनुष्य कोन से महापाप नहीं कर डालता । जीवन-भर जिन्होने सयम की साधना और छह काया की प्रतिपालना की; ऐसे आपाढाचार्य ने जब छह वालको के गले घोंट दिये, तब अन्य की तो बात ही गया है। प्रतिदिन समाचार पत्रो मे पढते हैं कि लोभ के वशीभूत होकर अमुक ने अपने पिता को मार डाला. अमुक ने अपनी माता के प्राण ले लिये और अमुक ने दूसरे के बालकों को मार डाला । यह लोभ मनुष्य से कौनयौन में अनर्थ नहीं कराता है ! यद्यपि वे बालक मायामयी थे, परन्तु आचार्य