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प्रवचन-सुधा चार चार नये नये रूप बनाकर कपटाई करके लड्डू ले जा रहे हैं, सो क्या यह साधु का काम है ? आप अव जीभ के वशीभूत हो गये हैं। अत: अव आपसे साधुपना पालना कठिन है। क्योंकि नीतिकारों ने कहा है
वाड़ी बिगाड़े बांदरा, सभा बिगाड़े कूर । भेष विगाड़े लोलुपी, ज्यों केशर में धूर ॥ दीवा झोलो पबन को, नर ने झोलो नार ।
साधु झोलो जीभ को, डूबा काली धार । जो साधु जीभ का चटोकरा हो जाता है, उससे फिर साधुपने का निर्वाह कठिन ही नही, असंभव है । ऐसा साधु फिर साधु नहीं रहता है, किन्तु स्वादु बन जाता है और उसके पीछे फिर घर-घर डोला करता है। अतः हम हाथ जोड़कर प्रार्थना करते हैं, सो आप स्वीकार कीजिए और फिर रईसों के समान घर पर रह कर आनन्द के साथ खाइये-पीजिये और हम लोगों के साथ मजा उड़ाइये । उन लडकियों के हाव-भाव को देखकर और इस बात को सुनकर आषाढभूति का मन विचलित हो गया और विचारने लगा कि इस साधुपने में रहना और घर-घर मांगते फिरना उचित नहीं है । यह विचार आने पर वे लडकियों से बोले-- मैं अपने गुरु महाराज के पास जाता हूं। यदि उन्होंने आज्ञा दे दी तो आजाऊंगा, अन्यथा नहीं आऊंगा। यह कह कर वै अपने गुरु के पास गये । गोचरी में अत्यधिक बिलम्ब हो जाने से बे सोच रहे थे कि आज आपाढ़भूति अभी तक क्यों नहीं आया ? जब उन्हें नई चाल-ढाल से और बिना ईर्या नमिति के आते हुए देखा तो उनसे पूछा-इतनी देर क्यों लगी ? तब वह बोला गुरुजी, मैं तो पूछने को आया हूं। गुरु ने कहा---अरे, क्या पूछने को आया है ? आपाढ़भूति बोला-अब आप अपने ये झोली-पातरे सभालो । मेरे से अव ये साघुपन और घर-घर भीख मांगना नहीं होगा। गुरु बोले- अरे, आज तुझे यह क्या हो गया है ? क्या पागल तो नहीं हो गया है, जो हाथ में आये और स्वर्ग-मोक्ष के सुखों को देनेवाले चिन्तामणि रत्न के समान इस सयम को छोड़ने की वात कहता है ! आपाभूति बोला---गुरुजी, इतने दिनों तक आपका उपदेश लग रहा था, परन्तु अब नहीं लग सकेगा । गुरुजी ने बहुत समझाया और कहा कि देख यदि इस संयम रत्न को छोड़ेगा तो संसार-सागर मे डूब जायगा।
गुरु की सीख : अत: मेरा कहना मान और साधु मार्ग से भ्रष्ट मत हो । गुरु महाराज के बहुत कुछ समझाने पर भी जब वह नहीं माना आर बोला- अब मुझगे यह