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धनतेरस का धर्मोपदेश · पुत्र के इन वचनों को सुनकर माता-पिता साधुचर्या की कठिनाइयों का वर्णन करते हैं और वह मृगापुन सबका समाधान करके उनको निरुत्तर करता है। जब माता-पिता ने उन्हे काम भोगों की ओर आकृष्ट करने का उपक्रम किया, तव मृगापुत्र ने संसार की असारता को बताते हुए विस्तार से नरकों के दारुण दु.खों का वर्णन कर भोंगों के दुखद परिपाक को दिखाया। जब माता-पिता ने कहा कि वन में तेरी कौन परिचर्या करेगा, कौन तेरा इलाज करेगा और कौन तेरे खाने-पीने की व्यवस्था करेगा ? तब मृगापुत्र ने उत्तर दिया---
जहा मिगस्स आयंको, महारण्णम्मि जायई । अच्छंतं रुक्खमूलम्मि, को णं ताहे तिगिच्छई ।। को वा से ओसई देई, को वा से पुच्छई सुहं ।
को से भत्तं च पाणं च, आहरित्त पणामए । जब महावन में हरिण के कोई रोग उत्पन्न होता है, तब वृक्ष के नीचे अकेले बैठे उसकी कौन चिकित्सा करता है ? कौन उसे औपधि देता है ? कौन उससे सुख की बात पूछता है और कौन उसे खान-पान लाकर देता है ? ' इसीप्रकार में भी मृग की चर्या का आचरण करूंगा । अन्त में जब मृगापुत्र का दृढ आग्रह देखा, तव माता-पिता ने प्रवजित होने की अनुज्ञा दे दी। और मृगापुत्र ने दीक्षित होकर श्रामण्य का पालन कर सिद्धि प्राप्त की। इस अध्ययन में वर्णित नरक के दु.खो को पढ-सुनकर महा मोही पुरुष का भी मोह गले विना नही रहेगा, ऐसा कारणिक चित्रण इसमे किया गया है।
अनाथी अपने नाथ बीसवें अध्ययन का नाम 'महानिग्रन्थीय' है । इसी का दूसरा नाम अनाथी मुनि चरित भी है । इममे बतलाया गया है कि एकवार श्रेणिक राजा उद्यान में घूम रहे थे, तब उनकी दृष्टि एक ध्यानस्थ मुनि पर गई। वे उनके पास गये और वन्दना की। उनके रूप-लावण्य को देखकर श्रोणिक बहुत विस्मित हुए । मुनि से पूछा-आपने इस भरी जवानी में दीक्षा क्यों ले ली ? मुनि ने कहा- राजन्, मैं अनाथ हूं, इसीलिए मुनि बना हूं। श्रेणिक ने कहा-आप रूप-सम्पदा से तो ऐश्वर्यशाली प्रतीत होते हैं, फिर अनाथ कैसे ? फिर कहा---
आप मेरे साथ चलें, मैं आपका नाय बनता हूं और आप को सब मुखों के • साधन देता हू। मुनि बोले-राजन् ! तुम स्वयं अनाथ हो ? फिर मेरे नाथ कैसे बन सकते हो ? श्रेणिक को यह बात वहुत खटकी और बोले--मेरे पास अपार सम्पत्ति है, हाथी, घोडे रथ और पैदल सेना है और मैं लाखो व्यक्तियों