________________
१७०
प्रवचन-सुधा
आफीसर लोग बोले - अरे बनिये, तू हम लोगों से भी मजाक करता है ? तब सेठ बोला-आप लोग जरा शान्त होकर मेरी बात सुनें । आप लोगों ने अमुक-अमुक व्यक्ति को बिना किसी कसूर के फासी पर चढाया है और अमुकअमुक को जेलखाने में डाला है। क्या यह झूठ है ? तुम लोगों को ऐसा अन्याय करते हुए शर्म तक नहीं आई ? फिर गंवार नहीं हो तो क्या हो ? यह सुनते ही सब के मुख नीचे हो गये ? तब सेठ उन्हें शान्त करता हुआ बोला-~-ऐसी नौकरी से तो मजदूरी करना अच्छा है । तब वे लोग बोलेसेठजी, भापका कहना सत्य है। नौकरी के वश होकर हमें उक्त अनुचित कार्य. करने पड़े हैं। तव सेठने हाथ जोड़कर सबसे पूछा- कहिये, क्या भोजन बन वाया जाय । उन लोगो ने कहा-जो नापकी इच्छा हो । तब सेठने बढ़िया मिष्ठान्न वनवा कर उन्हे भोजन कराया और पान-नुपारी से सत्कार करके उन्हें विदा किया।
भाइयो, इस कथा के कहने का भाव यह है कि जब तक मनुष्य अपने रूप को नहीं देखता है, तब तक वह इधर-उधर गोते बाता-फिरता है। हम लोगों ने भी आज तक अपने रूप को नहीं देखा है, इसलिए आज संसार मे गोते लगाते फिर रहे हैं। अतः हमें अपना स्पाज देखना चाहिए कि हम तो सिद्धों के समान शुद्ध अनन्त ज्ञान-दगंन-सुख-वीर्यमय हैं और उस स्वरूप को पाने के लिए अब प्रयत्न करना है। यही सन्देश यह रूप चतुर्दगी हम सबको देती है। वि० सं० २०२७ कार्तिक कृष्णा १४
जोधपुर