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घनतेरस का धर्मोपदेश
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यह ब्रह्मचर्य धर्म ध्रुव, नित्य, शाश्वत और जिनोपदिष्ट है । इसका पालन कर अनेक जीव भूतकाल मे सिढ हुए है, वर्तमान मे सिद्ध हो रहे है और भविष्य काल मे सिद्ध होगे ।
सत्तरह। अध्ययन का नाम 'पापश्रमण' है। श्रमण अर्थात् साधु दो प्रकार के होते हैं-धर्मश्रमण पापश्रमण । जो ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य इन पाच आचारो का विधिवत् पालन करता है वह धर्मग्रमण है । इसका विस्तृत स्वरुप पन्द्रहवें अध्ययन में बताया गया है। जो ज्ञानादि आचारो का सम्यकप्रकार से पालन नहीं करता है वह पापक्षमण कहलाता है। जो प्रवजित होकर अधिक नीद लेता है, रख पीरर सुख मे मोता है, जो गुरुजनो की निन्दा करता है, उनकी सेवा नहीं करता है, जो अभिमानी है, जो द्वीन्द्रियादि प्राणियो का तथा हरित वीज और दूर्वा आदि का मर्दन करता है, जो सस्तर, फलक, पीठ, आदि का प्रमाणन किये बिना उन पर बैठता है, जो द्रुति गति से चलता है, असावधानी से प्रतिलेखन करता है, गुरु का तिरस्कार करता है, छल-कपट करता है, वाचाल एव लालची है, विबादी एव कदाग्रही है, स्थिर बासनवाला नहीं है जो दूध, दही आदि विकृतियो का निरन्तर आहार करता है, जो सूर्योदय से लेकर के सूर्यास्त तक बार-वार खाता रहता है, जो जल्दी जल्दी गणपरिवर्तन करता है, पाखडियो की सेवा करता है, जो गृहस्थ की शय्या पर बैठता है, जो पार्श्वस्थ कुशील आदि साधुओ के ममान असवृत है और हीनाचारी है, वह 'पापश्रमण कहलाता है । अन्त में बताया गया है कि---
जे वज्जए एए सया उ दोसे, से सुब्वए होइ मुणोण मज्झे । अयंसि लोए अमय व पूइए, आराहए दुहओ लोगमिण ॥
जो उपर्युक्त दोपो का सदा वर्जन करता है, वह मुनियो के मध्य मे सुव्रती कहलाता है। वह इस लोक मे अमृत के समान पूजित होता है और इहलोक-परलोक का भाराधक होता है।
अठारहवा 'सजयीय' अध्ययन है। इसमें बताया गया है कि कापिल्य नगर का राजा सजय एक बार सेना के साथ शिकार खेलने को जगल मे गया और उसने वहा पर मृगो को मारा। इधर-उधर देखते हुये उसे गर्दभालो मुनि दिपायी दिये। उन्हें देखकर राजा के मन मे विचार आया कि यहा पर हरिणो को मारकर मैंने मुनि की आशातना की है। वह उनके पास गया और वन्दना करके बोला- 'भगवन्', मुझे क्षमा करे । मुनि ध्यान-लीन ये, अत कुछ नहीं बोले । पुन उसने कहा—'मन्तै, मैं राजा सजय हू, आप