________________
धनतेरस का धर्मोपदेश
१४३
तिण्णो हु सि अण्णवं महं, कि पुण चिट्ठसि तीरमागओ।
अभितुर पारं गमित्तए, समयं गोयम, मा पमायए ।। हे गौतम, तू महासमुद्र को तैर गया, अब किनारे के पास पहुंच कर क्यों खड़ा है ? उसको पार करने के लिए जल्दी कर और एक क्षण का भी प्रमाद मत कर। ___भगवान् की ऐसी सुललित वाणी को सुनकर ही गौतम राग द्वेप का छेदन करके सिद्धि को प्राप्त हुए हैं । ___ग्यारहवें अध्ययन का नाम 'बहुश्रुत पूजा' है । इसमें बताया गया है कि जो बहुश्रु नी-द्वादशाङ्गवाणी का वेत्ता और चतुर्दश पूर्वधर होता है, वह कम्बोज देश के घोड़े के समान शील से श्रेष्ठ होता है, पराक्रमी योद्धा के समान अजेय होता है, साठ वर्षीय हस्ती के समान अपराजेय होता है, यूथाधिपति वृपभ के समान गण का प्रमुख होता है, सिंह के समान अन्य तीथिकों में दुप्रधर्प होता है, वासुदेव के समान अवाधित पराक्रमी होता है, .चतुर्दश रत्नों के स्वामी चक्रवर्ती के समान चतुर्दश पूर्वो का धारक होता है, उदीयमान सूर्य के समान तप के तेज से प्रज्वलित होता है, पूर्णमासी के चन्द्रमा के समान सकल कलाओं से परिपूर्ण होता है, धान्य से भरे कोठों के समान श्रुत से भरा होता है, जम्बूवृक्ष के समान श्रेष्ठ होता है, विदेह-वाहिनी सीता नदी के समान निर्मल एवं अगाध पांडित्य वाला होता है, मन्दर (सुमेरु) के समान उन्नत होता है और स्वयम्भूरमण समुद्र के समान अक्षय ज्ञान से परिपूर्ण होता है।
बहुश्रुतता का प्रधान कारण विनय है । जो व्यक्ति विनीत होता है उसका श्रुत सफल होता है और जो अविनीत होता है, उसका श्रुत फलवान् नहीं होता । इसलिए भगवान ने सर्व प्रथम कहा--
अह पंचर्चाह ठाणेहि, जेहि सिक्खा न लभई ।
थम्मा कोहा पमाएणं, रोगेणा 5 लस्सएण य ॥ . मनुष्य पांच स्थानों के कारण शिक्षा को प्राप्त नहीं कर सकता है—मान से, क्रोध से, प्रमाद से, रोग से और आलस्य से ।
शिक्षा-प्राप्ति के लिए बतलाया गया है कि वह हास्य का त्याग करे, इन्द्रिय और मन को वश में रखे, किसी की मर्म की वात को प्रकट न करे, चरित्र से हीन न हो, कुशीली न हो, रस-लोलुपी न हो, क्रोधी न हो और सत्यवादी हो ! इस प्रकार इस अध्ययन में अविनय के दोष बताकर उसके छोड़ने का और विनय के गुण बत्ता कर उसके धारण करने का उपदेश देकर कहा गया है कि विनय गुण के द्वारा ही साधु बहुश्रुतधर बनकर जगत्पूज्य