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धनतेरस का धर्मोपदेश लिए कुछ समय दिया जाय। राजा ने कहा - अच्छा । कपिल खड़ा-खड़ा सोचता है-दो माशा सोने से क्या होगा ? क्यों न मैं सौ मोहरें मांगू ? चिन्तन-धारा आगे बढ़ी और हजार मांगने की सोचने लगा । धीरे-धीरे लोभ की मात्रा और बढ़ी और सोचने लगा-हजार से भी क्या होगा ? लाख मोहरें मांगना जाहिए? फिर सोचने लगा लाख से भी क्या होगा? करोड़ मोहरें मांगना चाहिए । इमी ममय उसे पूर्वभव का जातिस्मरणज्ञान उत्पन्न हो गया और उसका लोभ शान्त हो गया : वह राजा से वोला-महाराज, मुझे अब कुछ भी नहीं चाहिए । अव मेरी तष्णा णान्त हो गई है। मेरे भीतर करोड़ से भी अधिक मूल्यवान वस्तु प्रकट हो गई है । इस अवसर पर भगवार ने कहा है
जहा लाहो तहा लोहो लाहा लोहो पवदडई ।
दो मासकयं कज्ज कोडीए वि न निट्ठियं ।। मनुष्य को जैसे-जैसे लाभ होता जाता है, वैसे-वैसे ही लोभ बढ़ता जाता है । देखो, कपिल ब्राह्मण का दो माशा सोने से पूरा होने वाला कार्य करोड़ मोहरे से भी पूरा नहीं हुआ।
जो पुरुप कपिल के समान उस लोम का परित्याग करता है, वह अपना और धर्म का नाम दिपाता है ।
नमिप्रव्रज्या नाम का नवम अध्ययन है। नमिराज मिथिला नगरी के राजा थे। उन्हें जातिस्मरण ज्ञान हुआ और चे पुत्र को राज्य-भार सौप कर प्रव्रज्या के लिए निकले । उनकी परीक्षा के लिए इन्द्र ब्राह्मण का बेप बनाकर आया और वोला-राजन् ! हस्तगत रमणीय प्रत्यक्ष उपलब्ध भागों को छोड़कर परोक्ष काम भोगों की इच्छा करना क्या उचित है ? नमिराज बोले-ब्राह्मण, ये काम-भोग त्याज्य हैं, वे शल्य के समान दुःखदायी है, विप के समान मारक और आशीविप सर्प के समान भयंकर हैं ! तव ब्राह्मण वेपी इन्द्र कहता है --- राजन्, तुम्हारे अनेक राजा शत्रु हैं, पहिले उन्हें वश में करो, पीछे मुनि बनना । नमि ने कहा- जो संग्राम में लाखों योद्धाओं को जीतता है, उसकी अपेक्षा जो केवल अपनी आत्मा को जीतता है वह श्रेष्ठ विजेता है। इसलिए दूसरों के साथ युद्ध करने से क्या लाभ है ? अपने आपको जीतने वाला मनुष्य ही सुख पाता है। पांच इन्द्रियां क्रोध, मान, माया, लोभ और मन ये दुर्जेय हैं । जो अपनी आत्मा को जीत लेता है, वह इन दुर्जेय णत्रुओं पर सहज में ही विजय पा लेता है। इस सन्दर्भ की ये गाथायें स्मरणीय है।