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प्रवचन-मुधा
जो सहस्सं सहस्साणं, संगामे दुज्जए जिणे । एगं जिणेज्ज अप्पाणं, एस से परमो जओ ।। अप्पाणमेव जुज्झाहि, कि ते जुज्झेण चज्झो । अप्पाणमेव अप्पाणं, जइत्ता सुहमेहए ।। पंचिदियाणि कोहं, माणं मायं तहेव लोहं च ।
दुज्जयं चेव अप्पाणं, सव्वं अप्पे जिए जियं ।। इस प्रकार इन्द्र नाना प्रकार से फुसलाकर उनकी परीक्षा करता है, किन्तु नमिराज उसके प्रश्नों का ऐसा युक्ति-युक्त उत्तर देता है कि वह स्वयं निरुत्तर हो जाता है और अपना रूप प्रकट कर उनकी स्तुति और वन्दन करके स्वर्ग चला जाता है। तमिराज भी प्रवजित होकर तपस्या करके संसार से मुक्त हो जाते हैं । इस अवसर पर भगवान ने कहा है
__ एवं करेन्ति संवुद्धा, पंडिया पवियक्खणा।
विणियट्टन्ति भोगेसु, जहा से नमीरायरिसि ।। __ जो सबुद्ध, पंडित और विचक्षण बुद्धि वाले पुरुप इस प्रकार काम भोगों से विरक्त होकर आत्म-साधना करते हैं वे नमिराजपि के समान संसार से निवृत्त होते हैं, अर्थात् मुक्तिपद प्राप्त करते हैं ।
दशवां द्रुमपत्रक नामक अध्ययन है। इसमें भगवान महावीर गौतम स्वामी को सम्बोधन करते हुए कहते हैं
दुमपत्तए पंडुयए जहा, निवडइ राइगणाण अच्चए।
एवं मणुयाण जोवियं, समयं गोयम मा पमायए । हे गौतम, जैसे अनेक रात्रियों के वीतने पर वृक्ष का पका हुआ पीला पत्ता गिर जाता है, उसी प्रकार मनुष्य का जीवन भी एक दिन समाप्त हो जाता है । इसलिए तू क्षणभर भी आत्म-साधन करने में प्रमाद मत कर ।
इस प्रकार भगवान अनेक हप्टान्तों के द्वारा संसार की अनित्यता और असारता का दिग्दर्शन कराते हैं और बतलाते है कि किस प्रकार यह जीव पृथ्वी कायादि में असंख्य और अनन्त भवों तक परिभ्रमण करते इस मनुष्य भव में पाया है। इसमें भी आर्यपना, इन्द्रिय-सम्पन्नता, उत्तम धर्म श्रवण, आदि का सुयोग बड़ी कठिनता से मिलता है। जब यह सब सुयोग तुझं मिला है और अब जब कि तेरी एक-एक इन्द्रिय प्रतिक्षण जीर्ण हो रही है, तव ऐसी दशा में तुझे एक क्षणभर भी प्रमाद नहीं करना चाहिए। अन्त मे भगवान् कहते हैं---