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समता और विपमता मुनि के समान यति भाव (साधुपना) को प्राप्त होता है । भाई, इसीका नाम सामायिक है।
जो नियमवाले श्रावक होते हैं वे तो प्रात: दस बजे से पहले दुकान खोलते ही नहीं है । और शाम को चार बजे दुकान उठा देते हैं, क्योकि, रात्रि में भोजन नहीं करना है। जिसके ऐसा दृढ नियम होता है, उसके ग्राहक भी दुकान-खुलने के समय पर ही आते है। जो मनुष्य अपने नियम पर स्थिर रहते है, वे ही सामायिक आदि व्रतों के पालने का यथार्थ लाभ उठाते हैं। वे सोचते है कि यदि इस समय हम व्यारयान सुनना छोड़कर चले जावेंगे तो फिर गुरु के ये अनमोल वचन सुनने को नहीं मिलेगे। अत: हमे ऐसा अमूल्य अवसर नहीं खोना है। ग्राहक फिर भी मिल जायगा, किन्तु गया हुआ अवसर फिर हाथ नहीं आयगा । सच्ची सामायिक करनेवाले की तो ऐसी भावना रहती है। किन्तु जो लोग सामायिक का भेप धारण करके पोल में पड़े दूटों और जूतों पर दृष्टि रखते हैं और जाते समय अच्छे से बूट, चप्पल आदि को पहिन कर या थैली में डालकर ले जाने की भावना रखते हैं और अवसर मिलने पर ले भी जाते है, तो क्या ऐसी चोरी करने की भावना रखने वालों की कपड़े खोलकर और मुख-पट्टी बांधकर बैठने को सामायिक कहा जायगा? कभी नही ? ऐसा व्यक्ति तो धर्म का द्वेषी और वैरी है । जो कपड़े खोलकर और सामायिक नहीं ले करके भी व्याख्यान सुनने को बैठता है, उस समय यदि किसी के गले से सोने की चैन खुलकर नीचे गिर जाती है, तो वह उस व्यक्ति को इशारा करता है कि भाई जी, आपकी है क्या ? जरा ध्यान कर लेना। भाइयो, बताओ--कपड़े खोलकर भी जूतों और चप्पलो को ले जाने वाले की सामायिक कही जायगी ? अथवा कपड़े नहीं खोल करके भी सोने और पापाण मे, तण और मणि मे समभाव रखने वाले के सामायिक कही जायगी ? समभाव सर्वत्र सर्वदा उत्तम है, चाहे वह कपड़े पहिने हो और चाहे खोलकर बैठा हो ? और यदि समभाव नहीं है, परिणामो मे विपमभाव है, आत-रौद्रध्यान है, पापमय मनोवृत्ति है, तो चाहे वह साधु हो और चाहे वह श्रावक हो सर्वत्र सर्वदा बुरा ही है । आचार्यो ने सामायिक का स्वरूप बतलाते हुये कहा है
समता सर्वभूतेषु, संयमे शुभभावना !
आर्त्त-रौद्रपरित्यागस्तद्धि सामायिकवतम् ॥ अर्थात् सर्वप्राणियों पर समभाव हो, संयम में शुभ भावना हो और आर्त्त-रौद्र भावों का परित्याग हो, वही सामायिक व्रत है।