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स्वच्छ मन : उदार विचार
अरे भाई, अन्य स्थान पर किये गये पाप तो धर्मस्थान पर आकर धर्मसाधन करने से विनष्ट होते हैं । किन्तु जो धर्मस्थान पर ही पाप कार्य करेगा, उसके पाप कहां विनष्ट होंगे ? ये तो वज्र लेप हो जायेंगे, जो आगे असंख्य भवों तक दुःख देंगे। ' परन्तु आज के ये जूते चोर तो समझते हैं कि जूते चुरा कर ही हम धाप कर रोटी खायेंगे । परन्तु भाइयो, याद रखो, ऐसे लोग तो अनेक दिनों तक भूखो मर कर ही मरेंगे । अरे, मजदूरी करके पेट भर लो, पर ऐसे नीच और निय कार्य मत करो । ऐसे कार्य करने से पहिले तो धर्मस्थान बदनाम होता है। फिर स्थानीय समाज की इज्जत जाती है और जिसकी वस्तु जाती है, उसकी आत्मा दुःख पाती है। धर्मस्थान पर तो सदा देने का ही भाव रखना चाहिए, लेने का नहीं। यहां पर किया हुआ पाप असंख्य जन्मों तक दुःख देता
लोग कहते हैं कि हमारी सलाह नहीं लेते । भाई, जिनमें इतना भी विचार नहीं है, उनसे क्या सलाह ली जाय ? ऐसे लोगों में तो मनुष्यता का ही अभाव है । उन्हें रात-दिन धर्म की बात सुनाई जाती है, परन्तु फिर भी उनमें विवेक जागृत नहीं हुआ है। उससे धर्म-प्रचार में भारी हानि होती है । यहां पर पहिले भी चौमासे हुए हैं, आज भी है और आगे भी सन्त-महात्मा आयेंगे । इसलिए हमें अपने नगर के सम्मान में वट्टा लगाने वाला कोई भी कार्य कभी नहीं करना चाहिए । जो ऐसा कार्य करते है चाहे देश में रहें और चाहे परदेश में जावे, उनके लिए तो कांटे और खीलें सर्वत्र तैयार है ! क्योंकि उनके मनमें स्वयं काटें और खीलें हैं । वे दूसरों को क्या गड़ेंगे ? प्रत्युत उनके ही पैरों में गड़ेंगे।
भाइयो, आज ही क्या रामायण वांचते हैं ? अरे, रामायण सुनाते-सुनाते बूढ़े हो गये । क्या कभी सुना नहीं कि सीता को सोकोंने खराव कहा और उसकी बदनामी उड़ाई, या नहीं ? धोबी ने भी कहा, या नही कहा ? भाई, कवि के अपने शब्द नहीं होते हैं । वे तो 'रावण कह रहा है। हम नहीं कह रहे हैं।
और जब राम के लिए कहते हैं, 'तव राम कह रहा है' हम नहीं कह रहे हैं । फिर यदि दुनिया अनुचित व्यवहार करती हैं तो क्यो करती हैं ? यह पुस्तक का दोष नहीं, परन्तु आपके हृदय का दोप है । हम दूसरों के साथ जैसा व्यवहार करेंगे, वैसा ही दूसरे भी हमारे साथ करेंगे । पहिले दूसरों के साथ अनुचित व्यवहार करके पीछे कहो कि हम माफी मागते हैं तो इसका यही अर्थ है कि आपका कार्य अनुचित था । सेठ सुदर्शन ने क्या माफी मांगी? वह शूली