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सर्वज्ञवचनों पर आस्था
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भगवान की वाणी तो त्रिकाल में वही की वही है, जो पहिले थी, वही आज है । यह कहना व्यर्थ है कि आज केवली नहीं हैं, पूर्वधर नहीं हैं । अरे भाई, भगवान के वचन अबाधित हैं, त्रिकालसत्य है। परन्तु मनुष्य अपने स्वार्थ के लिए कितने अनर्थ कर रहे हैं ? आपके सामने से सैकड़ों आदमी निकल रहे हैं एक व्यक्ति ने दूसरे को मारा हे और सब जानते हैं कि मारा है । वह पकड़ा भी जाता है तो अदालत यह कहकर छोड़ देती है कि प्रत्यक्षदर्शी गवाह नहीं है । अब उसे छोड़ तो दिया, परन्तु हृदय तो भीतर यही कह रहा है कि मारा है। इसीप्रकार जो अपने स्वार्थ-साधन के लिए उत्सूत्र-प्ररुपणा करते हैं और श्रद्धा से भ्रष्ट होकर अपनी मनमानी बात कहते हैं और समझते हैं कि संसार को हमारा काम अच्छा लग रहा है। ऐसे लोग सीधा ही क्यों नहीं कह देते कि वर्तमान के आगम-शास्त्र सूत्र ही नहीं है। फिर घर-घर क्यो गोचरी के लिए फिरते हो ? घर पर जाकर बैठो । समाज पर यह भार क्यों ? समाज का खर्च कराना और ऊपर से राजशाही ठाठबाट दिखाना क्यों ? कहा तो यह है कि
गृहस्थी केरा टूकड़ा, चार चार आंगुल दांत । ज्ञान-ध्यान से ऊबरे, नहिं तो काढ़े आंत ॥ पूज कही पूजावियो, नित को खायो आछो ।
परभव होसी पोठियो, वह वे देसी पाछो ।। भाई, वहां तो सारी बातों का हिसाव होता है-माप-दंड होता है । वहां मनमानी बात नहीं चलती है, किन्तु न्याय ही की बात चलती है। यदि भवरोग से छूटना है और जन्म, जरामरण से मुक्त होना है तो भगवान की बतलायी हुई मम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूपी परम औपधि का सेवन करना होगा । और यह रत्नमय परमोपधि भी उस सद्-गुरु रूपी वैद्य से लेनी होगी, जो स्वयं निर्मल आचार-विचारवाला हो, जिसके चारित्र में किसी प्रकार का कोई दोष नहीं लगा हो । यदि कदाचित् लगा हो तो जिसने उसकी शुद्धि करली हो, जो धर्म के लिए सर्वस्व समर्पण करनेवाला हो । अन्यथा आप डुवन्ते पाढे, ले डुवन्ते जजमान' वाली कहावत सत्य सिद्ध होगी । लोभी और स्वार्थी गुरु शुद्ध को अशुद्ध और अगुढ को शुद्ध कर देते हैं, जैसा कि आज प्रायः देखा जाता है। __देखो--एक गुनिराज तपस्या करने के लिए ज्येप्ठमास की प्रचण्ड गर्मी के समय जंगल में पधारे । उन्होने अपने वस्त्र खोलकर एक वृक्ष के नीचे रख दिये, शरीर पर केवल लज्जा ढंकने का वस्न रहने दिया। पानी के पात्र के