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मनुष्य की शोभा-सहिष्णुता
१०५ • भाइयो, व्रत, नियम और तपादिक का परिपालन तभी ठीक रीति से हो सकता है, जबकि शरीर में शक्ति हो। शास्त्रकारों ने कहा है कि शरीरमाद्य खलु धर्म साधनम् । अर्थात् धर्म का सबसे प्रधान और पहिला साधन शरीर ही है। जिनका शरीर निर्वल है, उनका मन भी निर्बल होता है। ऐसे निर्वल मनुष्य क्या धर्म साधन कर सकते हैं ? जिनके शरीर में जान होती है, वे ही नियम के पावन्द रह सकते हैं। वे अपने नियम की रक्षा के लिए मरने की भी परवाह नहीं करते हैं । सहनशीलता बहुत उच्चकोटि की वस्तु है । सहनशील व्यक्ति कभी आपे से बाहर नहीं होता। वह समुद्र के समान गम्भीर और सुमेरु के समान स्थिर बना रहता है। वह अपनी शक्ति को व्यर्थ के कार्यों में नष्ट नहीं करता है । हाँ, जिस समय धर्म, जाति और देश पर संकट आता है उस समय वह व्यपनी शक्ति का उपयोग करता है। हमारे पूर्वज महापुरुप अपनी शक्ति को बहुत सावधानी से संचित रखते थे। उन्हें अनेक ऋद्धि सिद्धियां प्राप्त होने पर भी वे अनावश्यक व्यय नहीं करते थे। उन्हें प्राप्त हुई लब्धियों का उनको स्वयं भी पता नही होता था । किन्तु जव धर्म पर संकट बा जाता था, तो विष्णु कुमार मुनि के समान वे उसका उपयोग कर धर्म और समाज के ऊपर आये संकट को उस लब्धि के द्वारा दूर करते थे । ऐसे महा पुरुपों के गौरव की गाथाएँ आज तक गाई जाती है।।
सहन करो, पर पुरुषार्थ के साथ आज हमारी समाज में जो बड़े-बड़े आचार्य कहलाते हैं और संघ के स्वामी माने जाते हैं, वे भी संघ के संकट के समय सहन करने की तो कहते हैं, परन्तु पुरुपार्थ द्वारा उसे दूर करने की नही कहते है । कहावत है कि 'आप बल बलवन्त कहा । भाई, मनुष्य अपने बल के भरोसे पर ही बलवान कहा जाता है। समय पर अपना बल ही काम देता है। इससे अन्य मतावलम्बियों पर प्रभाव भी पड़ता है और अपना भी कार्य सिद्ध हो जाता है ।
एकवार श्री रूपचन्द जी स्वामी एकलिंगजी पधारे। ठंडी हवा के झोखे से उन्हें नींद आ गई और नींद में उनका पैर नादिया के ऊपर पड़ गया। इतने में पंडे लोग आये और कहने लगे नांदिया को खराब कर दिया। स्वामी जी ने कहा- क्या वोलते हो ? मुझे नींद लेने दो । पंडे बोले-हमारा नांदिया है । स्वामी जी ने कहा-यह तुम्हारा नांदिया कव से आया? हम अपनी वस्तु पर कुछ भी कर सकते हैं। तुमको इससे क्या प्रयोजन है। यह सुनकर पंडे लोग उन्हें धक्के देकर निकालने लगे। तब उन्होंने खड़े होकर कहा- चल भाई, मेरे नादिये ! यह सुनते ही वह पत्थर का नादिया चलने लगा 1 यह