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प्रवचन सुधा
अब ये दोनों भाई-बहिन चलते हुए राक्षस के ठिकाने पर पहुंचे । राक्षस मिला और उससे उस स्त्री ने कहा- अब तू मुझे खा सकता है । यह सुनकर राक्षस ने सोचा अरे, जब इसने अपना वचन निभाया है तब में इसे खाऊ ? यह नहीं हो सकता । प्रकट में उसने उससे कहा अब में तुझे नहीं खाऊंगा । तू मेरी बहिन है, यह कह कर उसने उसे बहुमूल्य आभूषण दिये और उसे पहुंचाने के लिए वह राक्षस भी साथ हो लिया । कुछ आगे जाने पर वे चारों चोर मिले जो इसके जाने की प्रतीक्षा ही कर रहे थे । इसने सामने पहुँच कर कहा - लो मैं ला गई हूं। अब जो कुछ तुम लोग लेना चाहो सो ले सकते हो । चोरों ने देखा इसके साथ एक राक्षस और एक भला आदमी और यह अपने वचन की पक्की निकली है | अतः इसे नहीं लूटना चाहिए। यह विचार कर उन्होंने कहा- तू अब हमारी बहिन है, यह कहकर जो धन लूट से लाये थे, वह उसे देकर उसे पहुंचाने के लिए साथ में हो गये ।
कुछ दूर चलने पर जैसे ही उसका गांव आया कि उसका पति जो गुप्त रूप से अभी तक पीछे-पीछे चल रहा था, झट वहां से दूसरे मार्ग द्वारा अपने घर में जा पहुंचे। थोडी देर में यह स्त्री भी गई। पति ने पूछा- वचन पूरा करके या गई ? इसने कहा- हां आ गई हूँ । बाहिर आपके छह साले खड़े हैं | उनसे जाकर मिल लीजिए। वह वाहिर गया, सब का स्वागत किया और उन्होंने जो धन दिया, वह लेकर और उन्हें विदा करके अपनी स्त्री के पास
आ गया ।
यह कहानी कहकर उस दीवान की लड़की ने पूछा- कुंवर साहब, यह बताइये कि पति चोर, राक्षस और साथी इन चारों में सबसे बढ़कर साहूकार कौन है ? और इन चारों में से धन्यवाद किसे दिया जावे ? तत्र राजकुमार ने कहा- राक्षस को धन्यवाद देना चाहिये, जो तीन दिन भूखा होने पर भी उसने उसे नहीं खाया । यह सुनकर उसने राजकुमार को धन्यवाद दिया और उनसे कहा- अब आप पधारिये ।
राजकुमार के जाने के पश्चात दोधान -पुत्र आया । उसने उसके साथ भी चौपड़ खेली और सारी कहानी सुनाकरके पूछा- बताइये, नापकी राय में धन्यवाद का पात्र कौन है ? उसने कहा- उसका पति और वह बाल साथी दोनों ही धन्यवाद के पात्र हैं। उसके पति ने तो अपनी स्त्री पर विश्वास किया और उसके साथी ने आत्म-संयम रखकर और वहन बनाकर उसे वापस किया | दीवान की लड़को ने इन्हें धन्यवाद देकर विदा किया ।