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प्रवचन-सुधा
सहस्रों शत्रुओं के बीच में रह करके भी उन्हें कैसे जीतते हो ? तव गौतम स्वामी ने उत्तर दिया
एगे जिए जिया पंच पंच जिए जिया दस ।
दसहा उ जिणित्ता ण सध्वसत्तू जिणामहं ॥ अर्थात् —एक मनरूपी शत्रु के जीत लेने पर मन और चार कपाय ये पांच जीत लिये जाते हैं । और इन पांचों के जीत लेने पर इनके साथ पांच __ इन्द्रियां भी जीत ली जाती हैं। इन दशों को जीत लेने पर मैं सर्व शत्रओ को जीत लेता हूं।
एक महापुरुष को स्मृति आज मैं आपके सामने एक ऐसे महापुरुप का चरित वर्णन कर रहा हूं जिन्होंने कि दश पर विजय प्राप्त की और जैनधर्म का झंडा चारों ओर फहराया ! उन महापुस्प का जन्म वि० सं० १७१२ के आसोज सुदी दशमी को इसी मारवाड़ के नागौर नगर में हुआ । उनके पूर्वज मुणोत थे और जोधपुर के रहनेवाले थे। परन्तु नागौर चले गये थे।
मुणोत महाराज आसथान जी जैसलमेर शादी करने गये और भटियानी जी के साथ शादी की । भाग्य से मंत्री संपतसेण की लड़की का भी इनके साथ अनुराग हो गया और उसने प्रण कर लिया कि मैं तो इनके साथ ही शादी करूंगी। मारवाड़ के महाराज आसथान जी इसे करने को तैयार नहीं हो रहे थे, तव जेसलमेर महाराज ने कहा-इस सम्बन्ध के स्वीकार करने में क्या है? आप क्षत्रिय हो और यह जैन-क्षत्रिय हैं। उस समय ब्राह्मणों का बोलवाला था। उन्होंने कहा-~-महाराज, इनकी जो सन्तान होगी, वह राज्य की उत्तराधिकारी नहीं हो सकेगी, क्योंकि आप तो जाति के क्षत्रिय हैं और ये तो जैन हैं। उनके लड़के मोहनजी हुए उन्होंने राज्य की दीवानगिरी की और उनके वंशज मुणोत कहलाये । यह वि० सं० १३८३ की बात है जव इन्होंने जैनधर्म को स्वीकार किया । सव जातियां बनने के बाद मुणोत जाति बनी है । उस समय अनेक क्षत्रिय जैनधर्म में आ गये । कितने ही लोग-जो इस तथ्य से अजानकार हैं-वे कहते हैं कि हम तो राजपूतों में से निकले हैं । अरे भाई, दूसरी जाति से निकले हुए तो दरोगा कहलाते हैं । जैसे नारियल में से गोला निकलता है । यद्यपि ये लोग क्षत्रियो में से ही आये है और आहार-विहार और खान-पान की प्रवृत्ति और थी । परन्तु जैन धर्म स्वीकार करने के पश्चात् उनके आचार-विचार में भारी परिवर्तन आगया। आचार्यों ने जैन धर्म का महत्व बताकर उनको ऐसी मोड़ दी कि आज वे कट्टर जैनधर्मी