________________
आत्म-विजेता का मार्ग
कोस मागे या पीछे रहना ठीका होगा । क्योंकि ठौर-ठौर पर धर्म के द्वे पी भी पाये जाते हैं । उन्हें कोई कष्ट न हो, इसलिए इनके आगे या पीछे चलना ठीक रहेगा। . रास्ते में जाते हुए सन्तों को अनेक कष्ट भी सहन करने पड़े । जाते हुए
जब भरतपुर पहुंचे तो वहां पर गुरु महाराज ने पालीवाल जैनी नारायण. दासजी को दीक्षा दी । आगे चलते हुए जब तीन मुकाम ही दिल्ली पहुंचने के रहे तब मंडारीजी चले गये और जाकर वादशाह से निवेदन किया कि मेरे गुरु आ रहे है । तब बादशाह ने कहा-उनके स्वागत के लिए खूब जोरदार तैयारी करो और धूम-धाम से उन्हें लेकर आओ। बड़े लोगों के मन में कोई बात जंचनी चाहिए। ये मोटापना नहीं रखते हैं। बादशाह के हुक्म से सब प्रकार की तैयारी की गई और लवाजमे के साथ खीवसीजी गुरु महाराज को लेने के लिए सामने गये । जव कोस भर गुरु महाराज दूर थे, तब भंडारीजी सवारी से उतर कर पैदल ही उनके पास पहुंचे और उन्हें नमस्कार किया। सामने आये हुए लवाजमे को देखकर गुरु महाराज बोले-भंडारीजी, यह क्या फितूर है ? हमें ऐसे आडम्बर की आवश्यकता नहीं है। हम तेरे साथ नहीं बावेंगे। तब उन्होने जाकर बादशाह को इत्तिला कर दी। तब बादशाह भी पेशवाई को गये। गुरु महाराज ने वहीं चौमासा कर दियाजहां पर कि बारहदरी वाला मकान है। चौमासे भर खूब धर्म को दिपाया।
एक दिन अवसर पाकर मंडारीजी ने कहा-~गुरु महाराज, आपने बाहिर प्रकाश किया । परन्तु जन्मभूमि मारवाड़ में अंधेरा क्यों ? तब उन्होंने कहा-- वहां पर जती लोग बहुत तकलीफ देते हैं। फिर वहां जाकर क्यों व्यर्थ क्लेश में पड़ा जाय । जव मंडारीजी के आग्रह पर चीमासे के बाद उन्होने दिल्ली से मारवाद की ओर विहार किया तो बादशाह का फरमान बाईस रजवाड़ों में चला गया कि आपके उधर पूज्य महाराज विहार करते हुए आ रहे हैं, अत: उनकी सर्व प्रकार से संभाल रखी जावे । यदि किसी प्रकार की कोई शिकायत आई तो राज्य जब्त कर लिया जावेगा। वादशाह की ओर से शाही फरमान के निकल जाने पर भी गुरु महाराज ने कोई फैलाव नहीं कराया । उन्हें मारवाड़ जाते हुए अनेक प्रकार के कष्ट उठाने पड़े। परन्तु वे सबको सहन करते हुए संवत् १७८१ मे मेड़ते पधारे। धन्नाजी को कई कष्ट उठाने पड़े। बे एक चादर ओढ़ते थे और निरन्तर एकान्तर करते थे । जव शारीरिक शिथिलता अधिक आ गई तो वहां विराजना पड़ा। वहां एक बालीवाला उपासरा कहलाता है, वहां पर १७८४ की साल आपका स्वर्ग वास हो गया । उनके दिवंगत होने के पश्चात् भूधरजी महाराज आगे बढ़े