________________
प्रवचन-सुधा
पुरुप रन बना, या नहीं बना ? वह धवल जैसा नही था। धवल मेठ तो ऊपर से हो धोला था, परन्तु अन्दर से काला था। यहां पर उपस्थित आप लोगों में से तो किसी ने धवल सेठ की विद्या नहीं सीखी है ? या सीखना तो नही चाहते हैं? अथवा श्रीपाल के समान बनना चाहते हैं? बनने को तो सब लोग ही श्रीपाल बनना चाहेंगे। धवल कोई नहीं बनना चाहेगा । मुख से तो यही कहेंगे। परन्तु दिल तो यही कह रहा होगा कि मजा तो धवल सेठ बनने में है : श्रीपाल तो अपना माल गंवाता था। किन्तु धवल सेठ तो माल जमा करता था। मैंने तो दोनों वाते आपके सामने रख दी हैं। अब आप लोग जमा बनना चाहें, यह आपकी इच्छा पर निर्भर है। जो वात आपको अच्छी लगे उसे स्वीकार कर लेना। परन्तु थोड़ी सी शिक्षा हमारी भी मानना कि यदि श्रीपाल न बन सको तो दो-एक गुण उन जैसे अवश्य सीख लेना। किन्तु धवल सेठ का एक भी दुर्गुण मत सीखना । यदि सीख लिये हों तो उन्हें छोड़ देना । उसके गुण आप लोगों की जाति, समाज और खानदान के योग्य नहीं हैं। कहना और उचित सलाह देना हमारा काम है और मानना या न मानना आपका काम है। यदि मानोगे तो आपका ही भला होगा और हमे भी प्रसन्नता होगी।
भाप लोग कहेंगे कि महाराज, बापका कथन सर्वथा सत्य है और मानने के योग्य है। तथा हम मानने को भी तैयार हैं। परन्तु आज का जमाना तो ऐसा नहीं है। यदि आज धबल सेठ के गुण नहीं सीखें तो हमारा जीवन निवाह होना भी कठिन हैं। एक भाई माया और कहने लगा~मुझे अपना मकान बेचना है । दूसरा वोला-~~-मैं लेने को तैयार हूं। परन्तु मैं तो रजिस्ट्री पूरी कराऊंगा। तब वह कहता है कि मुझे क्यों डुबोता है। मेरे घर में तो उसकी आधी कीमत भी घर में नहीं रहेगी। सरकार आधी ले लेगी। भाई, बात यह है कि जिधर भी देखते हैं, उधर धवल ही धवल सेठ नजर माते हैं। अरे, धवल की विद्या सीखना छोड़ दो। नीति धर्म तो यह कहता हैं कि ये अन्याय और छलबल से जो धन कमाया जाता है, यह अधिक दिन नहीं ठहरता है । नीतिकार कहते है--
अन्यायोपाजितं वित्तं दशवर्षाणि तिष्ठति ।
प्राप्ते त्वकादशे वर्षे समूलं च विनश्यति ॥ अर्थात् अन्याय से-छलवल से कमाया हुआ धन अधिक से अधिक दस वर्ष तक ठहरता है। किन्तु ग्यारहवां वर्ष लगते ही अपनी मूल पूजी को भी साथ में लेकर के दिनष्ट हो जायगा ।