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arra - विजेता का मार्ग
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वि० ० १७८७ में आपने आगे विहार किया और रघुनाथजी को अपना शिष्य बनाया | जेवदी दोज को दोधा रघुनाथजी की थी और १७८७ में ही जेवीजी की दीक्षा थी । सं० १७८ मगमिर यदी टोज को जयमलजी वे नवीं ही नौ निधान सवत् १८०४ की साल हुये ये स्वर्गपागी हुए ।
केन
हुए।
उनके शिष्य बने । श्री के समान थे। इन्होंने दीक्षा स० १७५४ में ली थी। विजयादशमी के दिन हो र बुई की गज्जाव करते जब वे राज्याय कर रहे थे तब सन्तों ने आकर कहा कि पारणा करेंगे ? तत्र आपने कहा- पारणा नहीं करूँगा । हमारे तो संधारा है । अन्तिम समय नज्य करते-करते ही पड़े हो गये और गीत का सहारा नेते ही प्राण- पनेरु उड़ गये ।ठे नहीं ।
भाइयो, उनका जन्म भी बाज के ही दिन मं० १७१२ की विजयादशमी को हुआ था और सं० १९७४ में आज के ही दिन उनका स्वर्गवास हुआ था । उन महापुरष के जीवन का यह दिग्दर्शन आप लोगों को सक्षेप में कराया है। हमें आज के दिन से ऐसे ही वोर बनकर कर्म शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिये ।
वि० सं० २०२७ जातोजसुदि १०
जोधपुर