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भन भी धवल रखिए ।
हो, तो वहा क्या किसी को उस विषय में कहने का मौका आता है ? नहीं आता । उस जमाने मे धवल मेठ जैसे बहुत कम पैदा होते थे। उस समय को लोग सतयुग या सुपम-सुपमा काल कहते थे । परन्तु आज मनुष्य की प्रकृति
और उसका जीवन लोभ-लालच से इतना मोत-प्रोत है कि जिसका कोई पार नही है । मनुष्य की ज्यो ज्यो तृष्णा बढ़ती जाती है, त्यो त्यो उसमे अत्याचारअनाचार आकर के समाविष्ट होते जाते हैं। किन्तु जिसकी तृप्णा कम है, जिसने अपने ममत्व भाव पर अधिकार कर लिया है और यह समझता है कि अब मुझे और अधिक की क्या आवश्यकता है ? इस मिट्टी के पुतले को पालना है --- इसे भाडा देना है, तथा इस पुतले के साथ जिम-जिसका सम्बन्ध है और जिस-जिसका उत्तरदायित्व मेरे ऊपर आकर पड़ा है, तो मुझे उनका पालनपोपण करना है । इसके लिए मुझे भोजन और वस्त्रो की आवश्यकता है। जितने से इसकी पूत्ति हो जाती है, उतने से अधिक मुझे धन की तृष्णा नही है। यदि में अधिक धन की तृष्णा करता है तो यह मेरे लिए बैकार ही नहीं है, अपितु जजाल है और धन अशान्ति-कारक है। आप बताइये कि ऐसे विचारों का आदमी क्या अनावश्यक धन को बढाने के लिए घोर दुष्कर्म करेगा ? कभी नहीं करेगा । किन्तु जिसकी तृष्णा उत्तरोत्तर वढ रही है और जिसकी यह कामना है कि मुझे तो अरावली के पहाड और आबू के पहाड जैसा धन का दर करना है, तो क्या वह दुर्योधन की नीति नहीं अपनायेगा और क्या वह धवल सेठ जैसा नही बनेगा ? उसके लिए तो कोई मरे, या जिये, या वर्वाद हो जाय, इसकी उसे कोई चिन्ता नही है । जिसे तृष्णा का भूत लगा हुआ है, वह इन वातो का कोई विचार नहीं करेगा । यदि लोग उससे कुछ कहते भी हैं, तो भी क्या उसे कुछ लाज-शर्म आती है ? नहीं आती है । क्योकि उसके सिर पर तृष्णा का भूत सवार है । नीतिकार कहते हैं कि----
अति लोभी न कर्तव्यो लोभेन परित्यज्यते ।
अति लोभप्रसंगेन सागर सागरं गतः ।। अधिक लोभ नहीं करना चाहिए, क्योकि लोभ का फल बहुत ही खराब होता है। देखो-पूर्व काल में सागर नामका सेठ सागर (समुद्र) में ठडा रह गया । मम्मण सेठ जिसके पास ६९ करोड की पूजी थी और रत्नो के बने हुए वैल थे। परन्तु वह लोभ के कारण उडद के वाकुले ही तेल के साथ खाता था । पहिनने के लिए मदारियो का क्वल --वह भी आधा पहिनता और आधा मोडता था । इतनी अधिक पूजी होने पर भी वह इतना अधिक कजूस था कि स्वय के भोगने में भी वह खर्च नहीं कर सकता था। तब क्या