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प्रवचन सुधा
मर कर क्यों हुए
ही की है । कभी तपस्या में चोरी की, कभी व्रत पालने में चोरी की ओर कभी आचार में चोरी की । उनके फलस्वरूप किल्विपी देव हुए । किल्विपी अर्थात् पाप-वहुत नीच जाति के देव क्योंकि हमने अपने पापों को आलोचना नही की - अपने पापो को गुरु के सम्मुख प्रकाशित नही किया । जव तक हम अपने पाप प्रकाशित नही करते हैं, तब तक हम सद चोर ही है । परन्तु जब आत्मा के भीतर सम्यक्त्व प्रकट हो गया, तब हमें यह कहने का साहस आया कि भगवन्, मैंने तपस्या में चोरी की है, व्रतो मे चोरी की है और बाचार मे चोरी की है । प्रभो, मैं आपका चोर हूं, आप मुझे दण्ड दीजिए । तव भगवान् कहते है -- तुम चोर नही हो ! तुम अपनी आलोचना स्वयं कर रहे हो तो यह तो तुम्हारी साहूकारी ही है ।
जब एक राजा अपने को चोर कहने वाले व्यक्ति को चोर मानने के लिए तैयार नही है, तब भगवान उसे चोर कैसे मान सकते है ? जो अपने अपराध को स्वयं स्वीकार कर रहा है, वह अपराधी, पापी या चोर नहीं है, क्योकि अपने अपराध को स्वीकार करना तो उत्कृष्ट कोटिका तप है कि जो कुछ भी उसने अज्ञान, प्रमाद से, या जानबूझ कर पाप किया है, वह सबके सम्मुख प्रकट कर देवे । जो व्यक्ति जव तक अपने पाप को छिपा करके रखता है, तब तक उसका कल्याण नही हो सकता है ।
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एक साधु गंगा के किनारे पर रह कर खूव तपस्या करता था । कुछ धीवर लोग उसके सामने ही जाल डाल कर नदी में से मछलिया पकड़ा करते थे । एक दिन उसने धोवरों से पूछा- तुम लोग इन मछलियो को ले जाकर के क्या करते हो ? उन्होंने बताया कि इन्हें तेल में तल करके खाते हैं । साधु सुनकर विचारने लगा मछली खाने मे स्वादिष्ट होती होगी । तब उसने भी मछली पकड़ कर और उसे तल कर खाई । मछली खाने से उसके पेट में बहुत दर्द उठा । वैद्यों से दवा लेने पर भी आराम नहीं मिला ।
वह बहुत दुखी
पूछा -- आप सत्य
हुआ । एक चतुर पुराने वैद्य ने साधु की नाड़ी देखते हुए कहिये, क्या खाया है | उसने चार-पांच बार झूठ बोलकर अन्य वस्तुओं के नाम लिए । वैद्य बोला - नाडी तो इस वस्तु के खाने को नहीं बताती है । उसने कहा- महाराज, यदि जीवित रहना है, तो सच बताओ कि क्या खाया है, तब तो मैं आपका इलाज करके ठीक कर दूंगा । अन्यथा वैकुण्ठी तैयार है । "साधु सोचने लगा कि मेरे इतने भक्त यहाँ पर बैठे है । में इनके सामने सच बात कैसे कहूं। मगर जब वैद्य ने मरने का नाम लिया, तो उसने सब बात सच कह दी । वैद्य ने उसका उपचार करके उसे ठीक कर दिया । भाई, वह साधु कब शुद्ध और स्वस्थ हुआ, जब उसने अपना पाप चिकित्सक से कह दिया तव ।