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मीच या मीत : १६
अमरलोक में प्रवेश करने का द्वार है । मरण का स्मरण रखकर अलिप्तता के साथ जो जी सका, उसी को अमरलोक का अधिकार प्राप्त होता है, बाकी के जो हिचकिचाहट के साथ मरण के यहां जाते हैं, उन्हें मरण पामर मानता है और वहाँ से धकेल कर उन्हें बार-बार जीवन-क्षेत्र में वापस भेज देता है । मरण को जो जानते हैं और जी-जान से चाहते हैं, वही जीवन का सही रास्ता और सही आनन्द पाते हैं ।
२ / मीच या मीत ?
हम चाहते हैं, उसके पहले ही मरण आता है । इसलिए हम मरण का शोक करते हैं । असल में मरण तो ईश्वर का उत्तम वरदान है । मरण अगर न हो तो न मालूम हमारी क्या दशा हो जाती । अनंतकाल तक जीते ही रहना... जीते ही रहना, इसमें हम हैरान हो जाते । कहीं-न-कहीं तो जीवन का ताना ही चाहिए । लोककथा के एक रसिक राजा ने एक ऐसो कथा माँगी, जो कभी पूरी ही न हो । चतुर कथाकार ने पहाड़ के जितने बड़े एक धान्य के कोठार में एक छोटा-सा सूराख रक्खा और टिड्डियों का एक दल आया, जिसे कोठार से अनाज लूटने को कहा । और वह कथा सुनाने लगा, एक टिड्डी आयी, और एक दाना ले गयी। दूसरी टिड्डी श्रायी, उसी सूराख से भीतर गयी और वह भी एक दाना ले गई । फिर नयी टिड्डी आयी, वह भी एक दाना ले गयी ।" टिड्डियां आती ही रहीं और एक-एक दाना लेकर जाती रहीं । राजा ने छ: महीनों तक यह सुना और अन्त में अकुलाकर पूछा, "अब कितनी टिड्डियाँ बाकी रही हैं ? " कथाकार तो बदला लेने के लिए ही बैठा था । उसने कहा, "महाराज, अभी तो एक