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मृत्यु का तर्पण : १ : २५ निद्रास्तोत्र में नींद को 'मनुष्यों की दयालु दाई' (काइण्ड नर्स
ऑव मैन) कहा है। मरण के साथ भी अगर इन्साफ करना है, तो उसे मनुष्य का परम सखा कहना चाहिए। बड़े-बड़े धन्वन्तरि और मनोवैज्ञानिक, जो शान्ति और सान्त्वना मनुष्य को नहीं दे सकते, वह यह परम सखा निश्चित और स्थायी रूप से प्रदान करता है।
लोग कहते हैं, "इस तरह मरण का काव्यमय वर्णन करने से वह प्रिय थोड़े ही हो सकता है ?" बात सही है; मरण इतना अनिवार्य और अवश्यंभावी है कि उसकी सिफारिश करके उसको स्वीकार कराने की जरूरत ही नहीं। हमें तो सिर्फ दुःख और दुःख के बीच का बड़ा भेद बताना है। जीवन से वियोग होने के कारण आदमी को जो दुःख होता है, वह दुःख अलग है और मरण के पूर्व जो शारीरिक वेदना होती है, उसका दुःख अलग है। दोनों के लिए मरण का कुछ भी उत्तरदायित्व नहीं है, मरण तो अपना सेवा-कार्य कर देता है और मनुष्य को दुःख-मुक्त करता है, इतना ही हमें बताना है। ___ गीता में कहा है कि जैसे कपड़े पुराने होने पर हम नये कपड़े पहन लेते हैं, उसी तरह एक देह के जीर्ण होने पर उसे छोड़कर मनुष्य दूसरी देह ले लेता है, इसमें दुःख करने का क्या कारण है ?
यह आश्वासन सार्वत्रिक नहीं हो सकता है । जब कोई नौजवान, उसकी सारी शारीरिक और मानसिक शक्तियां उत्कृष्ट हालत में होते हुए भी, मारा जाता है अथवा किसी दुर्घटना से मर जाता है, तब हम यह आश्वासन कैसे ले सकते हैं कि जो वस्त्र फेंका गया, वह पुराना था ? अभिमन्यु जब चक्रव्यूह में मारा गया, तब क्या अर्जुन यह मान सकता था कि उसके लड़के का शरीर जीर्ण-शीर्ण हो गया था, इसलिए वह