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१०६ :: परमसखा मृत्यु जाती है। ऊंचाई, विस्तार और जड़ों की गहराई तीनों में वृद्धि होती हुई हम स्पष्ट देखते हैं । जब इस विस्तार की मर्यादा आ जाती है तब न ऊंचाई बढ़ती है, न शाखाओं की संख्या। पत्ते भी पुराने गिरते हैं और नये पैदा होते हैं, लेकिन विस्तार पूरा होने के बाद वृक्ष के बाह्य रूप में कोई फर्क नहीं दीख पड़ता। लेकिन उसके विकास का इससे अन्त नहीं होता। विस्तार की पूर्णता के बाद वृक्ष का सारा कलेवर अन्दर से परिपक्व, मजबूत और सुघट बनता जाता है । उसके फलों में भी रस की दृष्टि से फर्क होने लगता है। इसी तरह जीवन का विस्तार उसकी मर्यादा तक बढ़ने के बाद आन्तरिक परिपक्वता में वह बढ़ता जाता है। कोई यह नहीं कहता कि विस्तार रुक गया, इसलिए विकास भी रुक गया। ऐसे भी वृक्ष हैं कि आठ-दस वर्ष के विस्तार के बाद सौ दो सौ वर्ष या अधिक समय तक उनका आंतरिक विकास होता रहता है, जिसे परिपक्वता कहते हैं।
हमारे शास्त्रकारों ने कर्मभूमि और भोगभूमि ऐसा एक भेद बताया है । यह पृथ्वी कर्मभूमि है। इसमें पुरुषार्थ के लिए अवकाश है। इसमें मनुष्य अपने को सुधार सकता है, या बिगाड़ सकता है । भोगभूमि में पुण्य-पाप का फल भुगतने की बात रहती है। उसमें नये पुरुषार्थ के लिए अवकाश नहीं रहता। कर्मभूमि
और भोगभूमि का यह भेद और ऊपर बताया हुआ विस्तार और विस्ताररहित परिपक्वता का भेद ध्यान में लेने के बाद हम कल्पना कर सकते हैं कि मरण के बाद मनुष्य तुरन्त दूसरा जन्म नहीं लेता। किन्तु जो जोवन पूरा किया, उसके सब संस्कारों को हजम करके परिपक्व बनाने के लिए कुछ समय लेता है। मृत्यु के बाद की मरणावस्था केवल शून्यमय अथवा अभावात्मक नहीं है, किन्तु पाचन की क्रिया के जैसा कुछ परिवर्तन करने का यह काल होगा। गणित, विज्ञान आदि विषयों का अध्ययन करने