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मोक्ष - भावना :: १२६
अलिप्त जीवन ही उत्तम जीवन है । यही हो गई हमारी मोक्ष की भावना । हमने माना कि मोक्ष और निवृत्ति एक ही चीज है अथवा निवृत्ति के द्वारा मोक्ष मिल सकता है और निवृत्ति के मानी हुए जितना भी काम हम कर सकते हैं, करना ।
लोग कहते हैं कि आप गलत अर्थ कर रहे हैं । निवृत्ति और मोक्ष का उपदेश करने वाले लोगों का जीवन देखिये । कितना प्रवृत्तिमय था वह ! शंकराचार्य ने थोड़ी उम्र में भाष्य लिखे, प्रकरण लिखे, स्तोत्र लिखे, देश का भ्रमण करके शास्त्रार्थ किये । चार मठों की स्थापना की । संन्यासियों के दसनामी अखाड़े चलाये, चार प्रकार के ब्रह्मचारी बनाये । हिन्दू धर्म को एक नया रूप दिया । पंचायतन पूजा चलायी और माता की अन्तिम सेवा करके अपनी मातृभक्ति का प्रमाण दिया । प्रवृत्तिशील प्रादमी इससे बढ़कर क्या कर सकता है ? ज्ञानेश्वर, रामदास, कबीर, तुलसीदास आदि सब सन्तों को देखिये । उन्होंने निवृत्तिपरायण प्रवृत्ति के ढेर या पहाड़ लगा दिये ।
बात सही है; किन्तु इनके शिष्यों में और सारे समाज में कुछ भी न करने की ही बात रही । स्वार्थवश और महत्वाकांक्षावश लोगों ने चाहे जितने बड़े-बड़े काम किये हों, परन्तु मोक्ष-परायण साधना के फलस्वरूप अकर्मण्यता ही बढ़ी । साधनों ने अखाड़े चलाये, खाने-पीने के प्रबन्ध किये, अतिथियों को खिलाया और पूजा तथा उत्सव के तांते लगाये । लेकिन उनका जीवन प्रवृत्तिमय, समाज-सेवामय थोड़ा ही कहा जा सकता है ? उपेक्षा, निरुत्साह और परलोक-परायणता, इन्हीं का वायुमण्डल समाज में फैला !
अब हमारी मोक्ष की कल्पना बदल गई है। मोक्ष यानी षड्रिपु के आक्रमण से मुक्ति । काम, क्रोध, लोभ, मोह, और मत्सर, इस शरीरपरस्त, असामाजिक स्वभाव से मन को
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