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१३२ :: परमसखा मृत्यु न आये, यही मोक्ष का हेतु है। लेकिन पुनर्जन्म तो हम कदमकदम पर बनाते हैं, खड़ा करते हैं । यह कोई अन्तकाल के क्षण की चतुराई की बात नहीं है। वेदान्त का ज्ञान हा, विश्वात्मैक्य का आदर्श जंच गया, पक्षपात, लोभ, ईर्ष्या-द्वेष, कुछ भी न रहा तो मनुष्य की मोक्ष की तैयारी हुई। इसके साथ इतनी जागरूकता होनी ही चाहिए कि हर तरह के कर्तव्य अदा करते हए कोई नया संकल्प खड़ा न हो, किसी नई कामना के वश हम न हो जायं, जिससे उस नये संकल्प की पूर्ति के लिए फिर से जन्म लेना पड़े।
जब गीता या वेदान्त के दूसरे ग्रन्थ मैं पढ़ता था तब मन में एक विचार आता था कि 'निष्काम कर्म' कहने की अपेक्षा अगर सीधा-सादा कहा होता 'निःस्वार्थ कर्म' तो क्या वह ज्यादा स्पष्ट नहीं होता ? राष्ट्रसेवा करते हुए या ज्ञान की उपासना में शोध-खोज करते हुए अगर स्वार्थ को छोड़ा, निःस्वार्थ भाव से सब काम किया, तो जीवन का नैतिक स्तर ऊंचा हो ही जायगा । तो गीता ने और हमारे वेदान्ती पुरखानों ने क्यों नहीं सीधा कहा कि स्वार्थ को छोड़ दो, निःस्वार्थ भाव से कर्म करो?
स्वामी विवेकानन्द ने एक जगह पर स्पष्ट लिखा है कि फल की स्पष्ट कल्पना और अपेक्षा किये बिना कोई मन्द आदमी भी कर्म नहीं करेगा। अगर मैं किसी मरीज की सेवा करता हूं, या उसे दवा देता हूं, तो मरीज को रोगमुक्त करना, यह उद्देश्य तो होना ही चाहिए। दवा के नाम से कुछ दिया और मन में सोचा कि 'परिणाम जो होना हो सो हो', तो ऐसी बेदरकारी को कोई वेदान्ती वृत्ति नहीं कहेगा। जब मैं स्टेशन की ओर जाता हूं तब फलां गाड़ी में सवार होने की दृष्टि से जाता हूं। इसलिए समय पर पहुंचना चाहता हूं। ऐसे फलों की प्राशा रहती ही है, रहनी भी चाहिए। जब आग बुझाने के लिए मैं बम्बा चलाता हूं तब