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१५६ :: परमसखा मृत्यु लेकिन उनके रिवाज का बिना सोचे हम अन्धानुकरण करके ऐसा क्यों लिखें? ___ सबसे पहले ‘मृतात्मा' शब्द पर हमारी आपत्ति है। जो लोग आत्मा को अमर मानते हैं, वे 'मृतात्मा' की बात कैसे कर सकते हैं ? 'मृत व्यक्ति की आत्मा' बराबर 'मृतात्मा'—ऐसा अर्थ करके 'मृतात्मा' जैसे सामाजिक शब्द का बचाव हो सकता है, लेकिन 'मृतात्मा' शब्द कान को अच्छा नहीं लगता। मृत व्यक्ति के शव को 'प्रेत' कहते हैं । यह भी मूल अर्थ की दृष्टि से गलत है। 'प्रेत' के मानी है-शरीर छोड़कर गया हुआ जीव । लेकिन 'शव' के लिए 'प्रेत' शब्द रूढ़ हो गया है।
हम मानते हैं कि मनुष्य के मरने के बाद उसका जीव और उसके संस्कारों का समूह शरीर छोड़कर चला जाता है और अपने लिए दूसरा उचित शरीर ढूंढ़ लेता है और उस नये शरीर के द्वारा कर्म करता है और भोग भुगतता है। 'स्वकर्म फल निर्दिष्ट', जो भी नई योनि मनुष्य को मिले, उसमें वह नई जीव-यात्रा शुरू करता है । कब्रिस्तान में सोते रहने के लिए उसके पास अवकाश नहीं होता। मनुष्य का जीव सुख-दुःख से व्याप्त हो सकता है, यात्मा के लिए हमेशा ही स्वास्थ्य-हीस्वास्थ्य है । वह कभी अस्वस्थ नहीं होता। इसलिए उनके प्रात्यर्थ शान्ति की प्रार्थना अनावश्यक है।
लोक-व्यवहार में यह सब परलोक की बातें हम क्यों लायें? हर एक व्यक्ति अपनी मान्यता के अनुसार जो कुछ भी सोचता है, सोचे; लेकिन सामाजिक रिवाजों में ऐसी बातों को नहीं छेड़ें, जो सर्वमान्य नहीं हैं। ___ असल बात यह है कि मृत व्यक्ति का जीव अपने कर्मानुसार कौनसी योनि में जाता है, उस बात को भी हमें नहीं सोचना है। मनुष्य के मरने के बाद उसके शरीर का और जीव