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१५८ : परमसखा मृत्यु
स्वनामधन्य ठक्करबापा की मृत्यु के बाद उनकी मृत्यु पर शोक प्रकट करने वाले प्रस्ताव का मैंने विरोध किया था। मैंने कहा था कि एक व्यक्ति ने अपनी सारी शक्ति समाज के उपेक्षितों की सेवा करने में लगा दी, शरीर में जितनी भी शारीरिक, मानसिक या हार्दिक शक्ति थी, सब-की-सब सेवा में अर्पण की। वृद्धावस्था के कारण जब शरीर तनिक भी सेवा देने में असमर्थ हुआ, तभी उनको पाराम लेना पड़ा और ईश्वर ने करुणा-भाव से उनको शरीर से मुक्त किया। ऐसी घटना में शोक के लिए अवकाश ही कहां है ? किस बात पर हम शोक करें ? हम उनसे प्रेरणा पा लें, उनके प्रति कृतज्ञता और आदर व्यक्त करें और भगवान से प्रार्थना करें कि ऐसे जीवन-दानियों की परम्परा अबाधित रहे, बढ़ती जाय और उनका अनुकरण करने का हमें बल मिले। ___ मृत्यु का प्रसंग गम्भीर होता है। उस समय हमारे मन
और हृदय की जाग्रति विशेष होनी चाहिए। दोनों को बधिर करके एक रूढ़ रस्म को बिना सोचे हम अदा करते जायं, यह मनुष्य-हृदय को और मनुष्य-बुद्धि को शोभा नहीं देता। हम जो-कुछ भी करें, विचारपूर्वक और विवेकपूर्वक करें । मृत्यु भी मनुष्य-जाति के लिए ईश्वर की एक अद्भुत देन है । उससे हमें पूरा-पूरा लाभ उठाना चाहिए। हृदय-जाग्रति के बिना यह असंभव है। ईश्वर हमें सदा के लिए हृदय-जाग्रति बख्शे। मई, १९५६
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