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१५० :: परमसखा मृत्यु
का प्राग्रह नहीं रहना चाहिए ।
दर्शन के आग्रह के पीछे धोखा टालने का एक उद्देश्य रहता है । किसी का मुर्दा दूसरे किसी के नाम दफन किया या जलाया और असली श्रादमी को कहीं छुपा दिया, ऐसे किस्से बनते आए हैं । इसलिए भी दर्शन का प्राग्रह रक्खा जाता है । यह सब अर्थी उठाने के पहले हो जाय तो अच्छा । रास्ते पर मृतक का शरीर बन्द रहे, यही अच्छा है ।
अर्थी कंधे पर उठाने का रिवाज बहुत प्राचीन है । मृतक के प्रति आदर दिखाने के लिए कंधा दिया जाता है । लेकिन जहां रास्ते बनाये गए हैं और गाड़ी का प्रबन्ध हो सकता है, वहां अर्थी कंधे पर उठाने का रिवाज छोड़ देना चाहिए, साइकिल के चक्र को काम में लेकर जिस तरह फेरीवाले अपनी गाड़ी बनाते हैं, उसी तरह कोई प्रबन्ध किया जाय तो वह अच्छा है ।
राजकोट के किसी एक महाशय ने इस बारे में अच्छा आन्दोलन चलाया था । लेकिन उस प्रान्दोलन में मर्यादा न रहने से उसका असर बढ़ा नहीं ।
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जहां शव के जलाने के लिए उपले काम में लाये जाते हैं, वहां पुराने रिवाज में ज्यादा सुधार के लिए अवकाश नहीं है । उपले इधर-उधर गिर न जायं, इसके लिए दोनों या चारों तरफ लोहे की जाली या छेदवाली चद्दरें काम में लेने से सब सुलभ हो जायगा ।
जहां लकड़ी काम में लाते हैं, वहां भी चारों ओर अगर लोहे की चद्दरें या जालियां रक्खी जायं तो चिता के गिर जाने का भय नहीं रहता । लकड़ियाँ काटकर ठीक प्रकार की बना कर तैयार रखनी चाहिए । आजकल का ढंग बिल्कुल अच्छा नहीं है । शीघ्र ज्वालाग्राही पदार्थों में कपूर या घी का व्यवहार