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उपसंहार :: १४१
अब जब मेरी उम्र हो चुकी है, लोग मुझसे वही सवाल पूछते हैं, "अपनी दीर्घायुता का कारण बताइये | आज भी प्राप सतत कर्मशील हैं, लगातार मुसाफिरी करते रहते हैं, तनिक भी प्रसन्न या थके हुए मालूम नहीं होते, इसका कारण क्या है ?”
अपने बारे में कोई बड़ा दार्शनिक या गंभीर जवाब देना मेरे लिए रुचिकर नहीं है । मैं चिरप्रवासी तो हूं ही, इसका लाभ लेकर मैंने विनोद में कहा, "जवाब आसान है । मैंने मृत्युक चिन्तन तो काफी किया है, लेकिन मृत्यु की चिन्ता मैं नहीं करता । अब ये दो मेरे पीछे पड़े हैं, मुझे पकड़ना चाहते हैं; एक है 'बुढ़ापा' और दूसरा है 'मृत्यु' । ये दोनों काफी थके हुए हैं, पर पोछे तो पड़ ही रहते हैं। मुझे लेने कहीं पहुंच जाते हैं और लोगों से पूछते हैं कि फलां आदमी कहां है तो लोग कहते हैं, "अभी कल यहां थे, लेकिन पता नहीं, यहां से कहां चले गये ।” दरियाफ्त करके, मेरा पता पाकर, नये स्थान पर हाँपते - हाँपते मुझे लेने पहुंचते हैं। वहां पर भी उन्हें वही अनुभव होता है । लोग कहते हैं, "आपने थोड़ी-सी देरी की । अभी यहां पर थे, लेकिन पता नहीं, यहां से कहां चले गये । "
जबतक मेरी जीवन-यात्रा तेजी से चलती है, 'बुढ़ापा' और 'मौत' मुझे पा नहीं सकते । उसे मैं क्या करू ं ! उन्हें टालने की मेरी तनिक भी कोशिश नहीं है और उन्हें पाने की उत्कंठा भी नहीं है। पुराने दोस्त किसी दिन मिलेंगे जरूर। जितनी देरी होगी, उतने ही प्रेम से आलिंगन देंगे 1
और इन्शाअल्लाह फिर जुदाई नहीं होने देंगे ।