________________
मरणोत्तर की सेवा :: १४७ दृष्टि से भी। लेकिन हर जगह और खासकर गांवों में और जंगलों में ऐसी सहूलियत मिलना आसान नहीं है। लोगों को प्राचीन या प्राथमिक पद्धति का परिचय होना भी आवश्यक है। जिस तरह वन-भोजनों में हम कम-से-कम और बिलकुल प्राकृतिक साधनों से रसोई बनाते हैं, उसी तरह हरेक स्वाभाविक और सार्वभौम क्रिया के प्राथमिक प्रकार से भी मनुष्य को परिचित रहना चाहिए। मार्च, १९५२
२: मरणोत्तर की सेवा डा० भारतन कुमारप्पा की इच्छा थी और उनके परिवार के लोग भी इसमें सहमत हुए कि उनकी मृत्यु के बाद उनके शरीर को दफन करने की अपेक्षा उसका अग्नि-संस्कार किया जाय । ईसाई धर्म में दफन का ही रिवाज है, लेकिन आजकल चन्द लोग अग्नि-संस्कार ज्यादा पसन्द करते हैं।
हमारे देश में अक्सर छोटे बच्चों को और संन्यासियों को दफन किया जाता है। बाकी के लोगों के लिए हरेक जाति का अपना रिवाज अलग होता है। जमीन में दफनाना, दाहक्रिया द्वारा शरीर को भस्मशेष करना अथवा समुद्र आदि जलाशय में छोड़ देना, ऐसे तीन रिवाज हैं । जलाशय में मछलियों के लिए शरीर छोड़ देने से, शरीर का सदुपयोग तो होता है, लेकिन पानी बिगड़ जाता है, शरीर सड़कर रोग फैलाता है, ये दोष हैं । उससे तो जमीन में दफन करना कहीं अच्छा है, लेकिन सबसे अच्छा तरीका अग्निदाह का ही है।। ____ जब श्री धर्मानन्द कोसाम्बी ने अपने शरीर के बारे में गांधीजी की सलाह पूछते हुए कहा कि अग्निदाह में अधिक खर्चा