________________
मरणोत्तर जीवन : १११
लोक- कल्पना यह है कि मरा हुआ पूर्वज महाशूर, क्रूर, पेटू या आलसी हो, तो उसका वासना - समुच्चय अथवा लिंग शरीर बाघ या भेड़िये के शरीर में जन्म लेता है । यदि वह मिलनसार न होगा, तो बाघ की योनि प्राप्त करेगा । समानशीलवालों का संघ बनाने की वृत्ति वाला होगा, तो भेड़िये की योनि उसके लिए अधिक अनुकूल सिद्ध होगी, परन्तु श्राद्ध इन बाघों या भेड़ियों का नहीं होता ।
पूर्वजों में से कोई अपने कर्मों और संस्कारों के अनुरूप किसी भी योनि में गया हो और वहां अपनी पुरानी वासनाओं की तृप्ति करते करते नयी वासनाओं का बंधन रचता हो, तो उससे हमारा कोई वास्ता नहीं । हमारा कोई पूर्वज अपना शरीर छोड़कर चला गया हो, तो भी इस लोक में उसका सम्पूर्ण नाश नहीं होता । उसके द्वारा किये गए अच्छे-बुरे कर्म उसके द्वारा प्रेरित अच्छी-बुरी प्रवृत्तियां और उसके द्वारा मानव-स्वभाव के विकास में की गई वृद्धि - यह सब उसके चले जाने के बाद भी इस लोक में मौजूद रहता है ।
उसके साथ जिसका सम्बन्ध था, उन सगे-सम्बन्धी, शत्रुमित्र आदि लोगों की स्मृति और भावना में वह पहले की तरह ही जीवित रहता है; इतना ही नहीं, उसके बाकी रहे स्मृतिगत जीवन में दिन-प्रतिदिन परिवर्तन भी होते हैं । मृत्यु के बाद उसका निवास एक ही शरीर में नहीं रहता । स्मृति के रूप में, कार्य के रूप में अथवा प्रेरणा के रूप में वह जितने समाज में व्याप्त होगा उस समस्त समाज में उसका निवास होता है और उसके इस जीवन को लक्ष्य में रखकर ही उसका श्राद्ध संभव हो सकता है । श्राद्ध मरे हुए जीवों का नहीं होता; परन्तु देहत्याग करने के बाद उनका जो अंश समाज में जीवित रहता है, समाज के द्वारा प्रवृत्ति करता है, विकसित होता है और पुरुषार्थ करता