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११२ :: परमसखा मृत्यु
है, उसी का श्राद्ध हो सकता है । यह मरणोत्तर सामाजिक जीवन ही सच्चा पारलौकिक जीवन है। शास्त्रकारों ने मनुष्य की जीवित अवस्था के छः लक्षण गिनाये हैं : 'अस्ति, जायते, वर्धते, अपक्षीयते, परिणमते, म्रियते ।' ये सब लक्षण इस पारलौकिक जीवन को भी लागू होते हैं। इस कारण यह जीवन काल्पनिक नहीं, परन्तु वास्तविक है, व्यापक है, दीर्घजीवी है और परिणामकारी है। यही पारलौकिक जीवन है। यह जीवन यदि सुन्दर, उन्नतिकर, शुभकर होगा, तो वही जीवन का स्वर्ग होगा। वही जीवन यदि समाज का अध:पतन करने वाला होगा, आर्यत्व का ध्वंस करने वाला होगा, तो वह जीवन नरक होगा। इस प्रकार सोचें तो प्रत्येक जीवन का स्वर्ग-नरक उसकी मृत्यु के बाद प्रारम्भ होता है, परन्तु वह जीव तो इस लोक में ही प्रोतप्रोत रहेगा।
हम जिसे कोति कहते हैं, वह वास्तव में इस पारलौकिक जीवन का प्रतिबिम्ब है। पारलौकिक सुदीर्घ जीवन के साथ तुलना की जाय, तो जन्म-मरण के दो छोरों के बीच का हमारा सुख-दुःख से भरा ऐहिक जीवन बहुत छोटा या संक्षिप्त कहा जायेगा। परन्तु पुरुषार्थ की दृष्टि से देखा जाय, तो यह जीवन बहुत महत्वपूर्ण है; क्योंकि यही कर्मभूमि है। भोग की दृष्टि से देखें तो यह देहगत जीवन अत्यन्त अल्प और तुच्छ है । इसीलिए तो मनुष्य अपने नफे-नुकसान का हिसाब कर सकता है, उसे ऐहिक सुखों पर अधिक दृष्टि न रखकर पारलौकिक यशःशरीर की, उसमें मिलने वाले कीर्तिरूपी सुखोपभोग की और लोगों द्वारा निरन्तर प्राप्त होनेवाली कृतज्ञता की ही अधिक चिन्ता करनी चाहिए। इस लोक में हम यदि सत्कर्म करेंगे, लोगों को सत्प्रेरणा देंगे और पीछे रहने वालों का सर्वांगीण विकास करेंगे, तो मृत्यु के बाद इन सबमें वृद्धि होती रहेगी और हमारा मर